Friday, June 27, 2014

कविता संग्रह ''शब्द नदी है '' पर /कवि आलोचक श्रीरंग की समीक्षा

कविता संग्रह ''शब्द नदी  है '' पर /कवि आलोचक श्रीरंग ने इस संग्रह की बेहतरीन समीक्षा की है
/इस समीक्षा पर टिप्पड़ी करते हुए कवि आलोचक ओम निश्चल जी ने लिखा है कि:-''मैंने भी ये कविताएं पढ़ी हैा। इनमें एक सहृदय स्‍त्री की कूक, उल्‍लास और संवेदना दृष्‍टिगत होती है। इन कविताओं से लगता है जीवन अनुरागमय है और इसी अनुरागमयता में जीवन है। यथार्थ की खुरदुरी स्‍थितियों में भी वसुंधरा जी जीवन को सकारात्‍मक नज़रिये से देखती हैं। ये कविताएं गमले में उगाए गए उन फूल पोधों जैसी हैं जो कविता के पर्यावरण को हरा-भरा बनाए रखती हैं। इन्‍हें पढते हुए मुझे प्‍यार के झीने संकेतों से भरी कुंवर नारायण की यह कविता याद आती है:
रात मीठी चांदनी है
मौन की चादर तनी है
एक मुझमें रागिनी है
जो कि तुमसे जागनी है।

वसुंधरा जी ने जिस तरह डूब कर ये कविताएं लिखी हैं, उतनी ही उदारहृदयता से श्रीरंग जी ने समीक्षा में रंग भरे हैं। क्‍या करूँ कि फिर यह पंक्‍ति राह रोक लेती है: 'शिव को सराहौं कै सराहौं छत्रसाल को।"" विवेक निराला /हरेप्रकाश उपाध्याय/ राहुल देव आदि कवियों ने वसुन्धरा जी को शुभकामनायें दी है
प्रस्तुत है श्रीरंग की समीक्षा पुस्तक समीक्षा :

‘ शब्द नदी है : शब्द नदी में स्त्री
• श्रीरंग
वसुन्धरा पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘शब्द नदी है ‘ अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है ! वसुन्धरा के इस कविता संग्रह में प्रेम केन्द्रीय विषय है ! प्रेम और उसकी विभिन्न परिणतियों के इर्द गिर्द बुनी गयी कविताएँ जीवन के शाश्वत मूल्यों का संवर्धन करती है और क्षरण के प्रतिरोध में अपना हस्तक्षेप दर्ज करती है !
इधर प्रेम के व्यापार में बड़ी गिरावट आ गई है ! अब प्रेम का मतलब अपने लिए सब कुछ इच्छित और सुखद हासिल कर लेना है ! प्रेम का प्रतिमान बदला है ! कभी प्रेम सफलता का प्रतिमान हुआ करता था अब सफलता प्रेम का प्रतिमान हो गयी है ! आज प्रेम में असफल प्रेमी तेजाब फेंक देते हैं या चाकू मार देते हैं ! पहले प्रेमी चाहता था उसका चाहें जो हो प्रेमिका का अनभल न हो लेकिन आज यदि प्रेमी का कुछ बिगड़ता है तो वह दूसरे का सब कुछ बिगाड़ देना चाहता है ! इस बदले वातावरण में वसुन्धरा की कविताएं प्रेम के शाश्वत मूल्यों को स्थापित करती है ! यह मीठी और सोंधी प्यास की कविता है –

एक मीठी आस तेरी
एक सोंधी प्यास तेरी
तेरा सानिध्य
जैसे बसंत में बौराता आम
कसमसाता टेसू, गुलमोहर...

आज जहाँ आदमी प्रेम के योग्य होता जा रहा है औरत आज भी प्रेम के लिए सबसे योग्य है ! लेकिन आज औरत का प्रेम के लिए उपयुक्त होना उसकी अयोग्यता होती जा रही है ! प्रेम उसके हृदय में है ! इसलिए प्रेम में वह ठगी जाती है ! प्रेम में जुनून होता है ! औरत इस जुनून में सब कुछ त्याग देती है ! वह इसके लिए मर सकती है !औरत प्रेम में है तो समझो प्रेम में है, अपादमस्तक प्रेम में ! औरत पूरी इमानदारी से प्रेम करती है ! वह पुरुष से ज्यादा प्रेम के योग्य ठहरती है! औरत की जैविक संरचना का मिजाज ही ऐसा कि वह प्यार को जीवन में ज्यादा जगह दे सकती है ! उसका शरीर ही नहीं मन भी कोमल होता है ! यह मन की कोमलता वसुन्धरा की कविताओं में जगह-जगह दर्ज है और प्रेम,मन की कोमलता को हरा भरा कर देता है –
तेरी आवाज
दूर से / खिल-खिलाता सा कोई बादल
गीली-गीली धूप में / तर-ब-तर लिपटा जैसे प्यार
चुपके से उतरकर / धरती के अंतस को
भिगोने लगा है
पत्ता-पत्ता / हरा होने लगा है !
औरत की खासियत है कि वह बार-बार ठगे जाने के बावजूद खुद को दुनिया पर भरोसा कर लेने के लिए बार-बार तैयार कर लेती है ! उसकी यह मौलिक सहजता है जिसकी वजह से वह ठगी और छली जाती है ! प्रेम की उसकी योग्यता हीं उसे आसान शिकार बना डालती है ! बलात्कार से हत्या तक सब कुछ घट जाता है! लेकिन औरत प्रेम करना नहीं छोडती! तमाम डर और भय ,घबराहट के बावजूद वह प्रेम में कूदती है और बहुत गहरे तक उतरती है!
रात जगती / दिन सोती हूँ,
नींद में भी नींद कहाँ
तेरे ख्याल,तेरे सपने / तू और तू, बस तू ...!
मेरा वह मछेरा / फैलाता जाल, कब तक बचूँगी
जला में फंसने से उसके व्याकुल मैं कितनी ...!
( यह भी क्या )
लट्टू की लपेट / तेरा यह प्यार
मैं नाच रही हूँ / गोल-गोल
अपनी ही धुरी पर / जैसे नाच रहा ब्रम्हांड ...!
( लट्टू की लपेट )
प्रेम में डूबी स्त्री के दिन रात बिल्कुल अलग होते हैं ! दुनिया अलग होती है ! दृष्टि अलग होती जाती है ! मौसम अलग होते जाते हैं ! दुःख और टीस के टपकने का भी अपना मजा होता है—
रात भर सपने / तितलियों से उड़ते रहे
मेरे भीतर / जैसे रात
रात न हो / बसंत हो...!
दिन भर / होती रही बारिश
धारमधार भीगते रहे / खेत खलिहान...दूर वृक्षों से
टपकता रहा दुःख / टप – टप – टप – टप...!
( उसने कहा था )
वसुन्धरा की कविताओं में केवल भाषा की सजावट नहीं है ! यह उनका प्रेम है जो शब्द रूप में उजागर होता है ! इन कविताओं में स्त्री की पूरी पहचान दर्ज होती है ! उसकी छटपटाहट उसकी वेदना, पीड़ा मुखर होती है! स्त्री की तलाश उसकी बेचैनी का आइना हैं ये कवितायेँ!
सूरज घुटे तो घुटे /चाँद छीजे तो छीजे
अपना तो तितली सा मन / प्रीत का वरदान उड़ेगा..!
(सूरज घुटे तो घुटे )
वसुन्धरा की कविताओं की छटपटाहट स्त्री जीवन की बेचैनी है! यथार्थ से मुठभेंड है! आम्रपाली का दर्द आज की स्त्री का भी दर्द है ! समय बदला पर नियति नहीं बदली---
कुलवधू नहीं / नगर वधू बनना था
उस अभिशप्त सौन्दर्य को / वंचित करते हुए उसे
उसकी नैसर्गिक प्रीत से / क्या आज भी वैशाली के
उस नियम में / बदलाव नजर आता है...!
( आम्रपाली )

वसुन्धरा की कविताओं में प्रेम के अनेकानेक चित्र हैं! संबोधनों की विविधता है ! प्रेम है, उलाहना है, समर्पण है, राग है अनुराग है! खट्टी-मिठी यादें है,सुनहरी परिकल्पना है! उनका बांवरा मन प्रियतम की स्मृतियों में हरपल खोया रहता है उसकी ही आवाज को अनकता है ! यह प्रेम ही है जिसके हवाले से वे कविता का संसार रचती हैं, चाहे-अनचाहे इधर-उधर की, दूर पास की कविता का संसार ! स्त्रीत्व का चरमोत्कर्ष के बीच यहाँ अवर्चनीय पुलक गोचर होता है ,जिसे वह सजोना चाहती है ! प्यार होने और गलती होने के द्वंद भी है किन्तु प्यार के लिए -- अपनी निर्मिती के लिए उलाहना नहीं है ! वे अपने बीच दीवारों और सरहदों को मिटा देना चाहती हैं ! नदी हो जाना चाहती हैं !
काश सरहदें / तेरे मेरे बीच की
मिट ही जाएँ पंछी बन दूर के आकाश में
हम किनारे न रहें / नदी हो जाएँ..!
( काश सरहदें )
वसुन्धरा का रचना संसार प्रेम का संसार है! यहाँ कुतूहल और जिज्ञासाओं के प्रश्न भी है उत्तर भी ! वे आसमान के चादर में झिलमिलाती तमन्नाएँ काढ़ती हैं! शब्दों के प्याले में मुहब्बत की शराब छलकाती हैं ! प्रेम में डूबी महकी-महकी और बहकी-बहकी घूमती हैं ! पुरुष की हृदयहीनता उनसे छिपी नहीं है लेकिन जानती हैं सूरज लोकाचार है और चाँद प्यार है ! जहाँ एक पल के आगमन में जनम-जनम की प्यास छिपी है! यह रूह से महसूसने की कविता है ! जो अल्फाज की मोहताजगी से मुक्त होना चाहती हैं !
वसुन्धरा प्रेम की दुश्वारियों से भी अनभिज्ञ नहीं हैं , वह कविता में ही नहीं जीवन में रहती हैं, राह में बिछे अंगारों पर फिरती हैं और अपनी कविता की धूप में अपने प्रिय को भी चलाना चाहती हैं, बावजूद इसके कि पतंग की डोर कहीं और है ! इस कविता में इंतज़ार की तड़प है तो मिलन का सुख भी, यह सब इतना सुन्दर है कि छूने की चाहत में मन बिंध जाता है—
तन फड़फड़ाये / बिन छुए रहा भी न जाए
ओ गुलाब / तू मेरे प्रिय के जैसा क्यूँ है रे...!
( इतना सुन्दर )
वसुन्धरा की कवितायेँ स्त्री मन के कसक की कवितायेँ है ! उसके लिए प्यार हर मौसम का बसंत है ! प्रेम ही उसका पथ है ,जिसमे शिद्दत से जीना नशा ,जुनून और जुआ भी है !
यह कविता मीलों दौड़ के आई प्यारी स्त्री के प्रेम की कविता है ! यह हमारे समय के सन्नाटे को तोडती है और प्रेम की पुकार के राग में वातावरण को अनुरागमय बनाती है ! कविता में प्रेम की वापसी के लिए यह सुखद है ! आज हमारे जीवन से प्रेम लुप्त होता जा रहा है बाजारवाद सब पर हावी है ! वसुन्धरा की कवितायेँ बिना नारेबाजी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की वापसी की तरफदारी करती है और उसे स्थापित करने की मुहिम भी चलाती है ! इन कविताओं का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए !
कृति : शब्द नदी है
कवि : वसुन्धरा पाण्डेय
मूल्य : 80 / रूपये
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
समीक्षक : श्रीरंग
128 एम / 1 आर कुशवाह मार्केट
भोला का पूरा ,प्रीतम नगर इलाहाबाद-
मोबाईल -9335133894

साहित्‍य अमृत के जुलाई अंक में प्रकाश्‍य आलेख की मूल और अविकल प्रति

http://samalochan.blogspot.in/2014/06/blog-post_25.html 

Thursday, March 6, 2014

थैंक्यू मरजीना’’



कविता में कविता की वापसी का उद्घोष है रतीनाथ योगेश्वर का काव्य संग्रह ‘’थैंक्यू मरजीना’’

समकालीन कविता के परिदृश्य में ‘थैंक्यू मरजीना’ एक ऐसा संग्रह है जिसे जितनी बार पढ़ा जाए उतने ही नये अर्थ और भाव सामने आते जायेंगे ! जिंदगी की उतार चढाव को कलम की नोक पर रखकर रतीनाथ जी ऐसी कवितायेँ रचते हैं जिसे आप एक बार पढना शुरु करेंगे तो तब तक नही रखना चाहेंगे जब तक संग्रह की कवितायेँ ख़त्म न हो जाए ! इनकी कविताओं को पढ़ते हुए इंसान एक बारगी खुद ही उसका किरदार हो उठता है, इनके शब्द हथौड़े की चोट की भांति मन मस्तिक में गूंजने लगते हैं! आपकी कलम से निकली सभी कवितायें एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं, जहाँ आपको लगेगा सब कुछ आपका अपना है आप से संवाद करता हुआ! आत्महीनता और अवसाद के लम्बे अँधेरे रास्तों से निकल कर उद्दाम वेग से बह निकली इन कविताओं का स्वर निश्चित तौर से मानवीय चेतना के ताप में पगी भाव जगत की गहराइयाँ में मुखर होता है! कथ्य के अनंत विस्तार और निखरते संवरते हुये शिल्प के जरिये कवि रतीनाथ योगेश्वर की बहुत सारी कवितायेँ स्त्री विमर्श को इंगित करती हैं ! इनकी कविताओं के बीच जाकर इनके भीतर के उथल-पुथल को महसूस किया जा सकता है इनकी कर्मठ लेखनी की भावात्मक अभिव्यक्ति विशेषतः हिंदी भाषी समाज के लिए बहुमूल्य है ,क्यूंकि इनकी कवितायेँ केवल भावुक उदगार नही बल्कि विचार पुष्ट भावाभिव्यक्तियां है जिनमें जनपक्षधरता का उद्घोष साफ़ तौर से सुना जा सकता है जीवन संघर्षों और चुनौतियों को किस तरह रचता है कवि, कुछ पंक्तिया बानगी के तौर पर:--

‘’सुबह होने से पहले ही
फिर कमीज आ जाती है बदन पर
जलने लगता है / लैंप से निकाला तेल स्टोव में
जुराबें, रात की दुर्गन्ध लिए/चढ़ जाती हैं पांव में
जुराबों पर चढ़ दौड़ते हैं जूते
जूते दबाने लगते हैं पैंडल ...
आँतों में केवल चाय हिल रही है’’ (रौशनी के वृत्त)

प्रतीकात्मक बिम्बों से सजी आपकी कवितायेँ सरल शब्दों के साथ बहती हुयी किसी सांगीतिक लय सी जान पड़ती है...
वे बच्चों से भी उम्मीद लगाते हैं..
‘’बच्चों हमें पकड़ो
हम सेमल के रुंये की तरह उड़े जा रहे हैं /
बच्चो हमें मिटटी की रोटी बनाना और
बिना आग के चूल्हे में भी /फूंक मारना सिखाओ '' (उम्मीद)... ......वसुन्धरा पाण्डेय



काव्य संग्रह ''थैंक्यू मरजीना ''

कवि- रतीनाथ योगेश्वर

प्रकाशक -साहित्य भण्डार,50 चाहचन्द जीरो रोड इलाहाबाद

मूल्य - 200/---रुपये (सजिल्द )

काव्य संग्रह 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है'



'क्योंकि ये बनते हैं /सदियों के अनुभवों की चासनी में पक कर ही/मैं बताता हूँ उन्हें मुहावरे ही /अन्तिम सत्य नही हुआ करते साबित किया है इसे समय ने ही बार-बार''

सन्तोष चतुर्वेदी के नये काव्य संग्रह 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' की ये पंक्तियाँ बानगी प्रस्तुत करती है आज गढ़ी जा रही समकालीन कविताओं की ! संग्रह का फ्लैप लिखते हुए वरिष्ठ कवि विजेंद्र लिखते हैं कि'सन्तोष चतुर्वेदी अपनी कविता में उन अछूते तथा अपेक्षित विषयों की ओर भी जाते हैं जहाँ हमारा कुलीनजन जाने से डरता घबराता है !''
लोकधर्मिता की ओर जाती सन्तोष चतुर्वेदी की कविता अपना नया मुहावरा गढ़ती दिखती है !-

''पीढ़ियों से धंधा करते आये मोछू नेटुआ
चिन्तित है अब इस बात पर
कि बेअसर पड़ता जा रहा है साँप का जहर ''

अनगढ़ शिल्प के सुघड़ कविता का रचाव ,अनुकूल भाषा का चयन ,यहाँ तक कि अवधी और भोजपुरी के शब्दों का भी सहज समन्वय इनकी कविताओं की शक्ति है इस संग्रह में शामिल रचनाओं की भाषा सरल है. इनमें क्लिष्ट शब्दों का मोह नहीं दिखता. सीधे, सपाट लहजे में, बोलचाल की भाषा में कही गयी बात सीधे पाठक तक पहुँचती है..कवि को अनंत शुभकामनाओं सहित ...वसुन्धरा पाण्डेय

काव्य संग्रह '' दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' ''

कवि- सन्तोष चतुर्वेदी

प्रकाशक -साहित्य भण्डार,50 चाहचन्द जीरो रोड इलाहाबाद

मूल्य - पेपर बैक 50 रुपये /सजिल्द 250/- रुपये

Sunday, February 23, 2014

‘’मीरखां का सजरा’’



तरल संवेदना और सघन अनुभूति के साथ जनता के पक्ष में खड़ी हैं ‘’मीरखां का सजरा’’ की कवितायेँ                वसुन्धरा पाण्डेय
कहाँ से शुरू की जाए बात?..क्या पकड़ा जाय  क्या छोड़ा जाय ..? सच कहूँ तो ‘’मीरखां का सजरा’’ की कवितायेँ तरल संवेदना और सघन अनुभूति की कवितायेँ है, हाल में ही प्रकाशित इनके दूसरे काव्य संग्रह ‘मीरखां का सजरा’ की कविताओं  में  कवि-मन की बेचैनी,छटपटाहट बखूबी उभर कर सामने आती है ! श्रीरंग की  कविताओं का एक विस्तृत संसार है, इनकी कवितायेँ केवल एक वर्ग विशेष के लिए नही है बल्कि इस देश के तमाम उन लोगों के लिए है जिन्हें  आम आदमी के रूप में चिन्हित किया जाता है, श्रीरंग  अपने आस पास घटित होते मनुष्य के हर क्षण के क्रिया कलापों को कविता में इतनी बारीकी से पिरोते  है कि एक विशेष प्रकार की भावधारा सृजित होने  लगती है जिसके सरोकार सामाजिक होते हैं , इस संकलन में कई प्रकार की बेशकीमती कवितायेँ हैं जिसकी  पुष्टि संग्रह की पहली कविता पढ़ते ही होने लगती है
इलाहाबाद के चकला घर ‘’मीरगंज’’ के सन्दर्भ में जनश्रुति पर आधारित उनकी  पहली और लम्बी कविता को पढ़ते हुए आप उसके मिथकीय प्रवाह में बहने लगेंगे, मीरखां ; जो अपनी दो कनीजों के साथ इरान से आते हैं और---कुछ लाइने बानगी के तौर पर प्रस्तुत है ---
‘’मीरखां भडुवे नही थे
उनके वालिद भी नही थे दलाल
मियां मीर अमीर थे / अपने जमाने के कला पारखी
जाने –माने उस्ताद / गजब की थी मियां की नजर
उनकी मेहनत और / उनकी मशक्कत का ही
कमाल था कि / मीर खां ने दी /
एक से बढ़कर एक अदाकारा /मिट जाते थे मिटने वाले
क्या मजाल था कि कोई छू भी सकता किसी को---
तहजीब थी ,तमीज थी ,कलाकार नही थे वे
कलाकारों के उस्ताद थे मीर खां...’’


कविता का एक और धारदार व्यंगात्मक स्वर --.
‘’सावधान / महाधिराज पधार रहे हैं
पूरा नगर / नगरपाल / नगरपति सावधान
काले शीशे वाली गाड़ियों में / पधार रही हैं महारानिया ...’’
तीखे व्यंग्य  से बहुत सारी बातों को कितनी सुघड़ता से प्रयोग में लाते हैं श्रीरंग --
‘’महाराज की जो प्रिय बनना चाहती हैं
सुर्ख गुलाबों की माला लेकर हाजिर हों
एक महाराजधिराज को खुश करने के लिए
क्या –क्या जुगत किये जा सकते हैं.
बुलेटप्रुफ व्यवस्था से सुरक्षित संतो से आशीर्वाद लेना
फिर विशालकाय भींड को संबोधित करेंगे
परिवहन अधिकारी सावधान/नगर की सभी बसें कारें ,जीपें बेगार में लगी होनी चाहिए /
पदाधिकारी सावधान – भींड कम नही होनी चाहिए/ पुलिस अधिकारी सावधान
जनता से अधिक पुलिस रहनी चाहिए /
सावधान—काला झंडा नही दिखना चाहिए महाराज को / सावधान प्रधानाचार्यों /
स्कूल  के बच्चे स्वागत की झंडिया लिए बल्लियों के पीछे खड़े रहने  चाहिए /
महाराज को भींड बहुत पसंद है / जितनी बड़ी भींड खुद को उतना बड़ा महसूस करते हैं महाराज..
.प्रेस पत्रकार सावधान / महाराज का गुणगान होना चाहिए...
सावधान / जनता सावधान / लोकतंत्र सावधान / सावधान
लोगों से सावधान / महाराजधिराज पधार रहे हैं /
किसी पर भी गिर सकती है गाज....!’’___________________
काव्य संग्रह : मीरखां का सजरा
कवि : श्रीरंग
प्रकाशक : साहित्य भण्डार, 50 चाहचंद, जीरो रोड इलाहाबाद
मूल्य : 250 रुपये_______________________________


Thursday, January 2, 2014

मेरी समीक्षा ''बांसगांव की मुनमुन'' नवभारत टाइम्स ब्लॉग पर..

श्याम जुनेजा की टिप्पड़ी ,मेरी एक कविता पर..

 कविता वसुंधरा पाण्डेय 



बावरा मन  
जब भी चाहे, चाहे तेरा साथ
वक्त की रेत
मुट्ठी से फिसली जाती है

बदले में,
मिलते तो सही   
मौसम के जैसे ही कभी

 “…मै अपनी दुनिया में
पर तेरी दुनिया की बड़ी याद आती है

क्या कहूँ
मुझे भी तो तुमसे यही कहना था...!



 टिप्पड़ी आ0 श्याम जुनेजा की --

..."बावरा मन ....मौसम की तरह"
ऐसे मन को तो हम बावरा न कह पाएं कभी भी...यही तो सबसे समझदार मन है जो जानता है... वक्त की रेत=? ...मुटठी से फिसली जा रही है ... रेत की जगह कुछ और होना चाहिए था; आखिर, रेत जीवन का संकेत दे रही है.. सुंदर सा; हीरे, मोती, मानिक कुछ भी...प्यार की कविता में, रेत, का क्या काम ? 'वक्त' के स्थान पर भी 'समय' यदि हो तो बेहतर... ...बदले में मिलते हो 'तुम' मोसम की तरह... ..किस मौसम की तरह ? आते हुए मौसम की तरह या जाते हुए मौसम की तरह ? उमस भरे या भिगो देने वाले ...निपत्ते, या फूलों भरे , या फिर ...गर्म शाल कम्बल रजाई वाले मौसम की तरह ? सबसे सुंदर कविता सबसे अधिक सवाल पैदा कर देती है ..और फूलों की कोमलता वाले सवाल पैदा करने वाली कविता...! उसका तो कोई तोड़ ही नहीं होता ! वधाई !
टिपण्णी लिखते लिखते मन आ गई बात कि इस शानदार कविता के लिए जो बात कही जाए, वह रूटीन से थोडा निकल कर कही जा सके ...भूल-चूक के लिए माफ़ी के साथ ..!

अभी भी पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..


आंचलिक पृष्ठभूमि पर हरेप्रकाश उपाध्याय की उपन्यास बखेडापुर को पढ़ते हुए..
 
सच..कुछ नहीं बदला..पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..
  बखेडापुर ने ऐसा बखेड़ा किया कि भूला बिसरा बचपन आँखो के आगे तैर गया...सेम हालात हमरे मायका के फार्महाउस के पश्चिमी चंपारण बिहार की रही ...  एक बार जाना होगा...गहन रूप से दुबारा जानने को, कि, अभी की हालत क्या है वहां की ...

बहुत कुछ याद दिला दिया आपके इस उपन्यास ने ...और प्रेरणा भी कि, शायद कुछ मैं भी लिख डालूं भविष्य में... दो दिन से इस उपन्यास को पढ़ रही थी...एक-एक शब्द को ध्यान से पढ़ा ...कई बार किसी काम से उठना हुआ, पर ना कंप्यूटर बंद हुआ, ना ये पेज...

रेनू जी का 'मैला आँचल' पढने के बाद ये दूसरा उपन्यास है आपका; पढ़ रही हूँ ... जो शुद्ध रूप से .. गाँव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया है. गाँव की अच्छाई-बुराई को दिखाता, ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है, जिसमे, 'जाति समाज' और 'वर्ग चेतना' के बीच विरोधाभास की कथा है...'मैला आंचल' जब लिखा गया था, तब, कहा जाता है कि उस समय देश की आजादी के तुरंत बाद के ब्योरे थे...छ: दशक से ऊपर हुए, पर आज भी हालत जस के तस हैं...

कुछ पन्ने, जो जहन में अंकित हो गये हैं.....

दुसरे पृष्ट पर पात्रों के नाम से याद आया .. हमारे यहाँ भी गाँव में बलिस्टर...और वकील...जो जंगल से पत्ते तोड़ कर लाता था, दोनिया और पत्तल बनाता है ....और जज साहब, जो अभी भी आठ दस भैंस रखे हैं, सानी पानी करते और दूध बेचते हैं... लोग कहते हैं कि, जैसा नाम रखिये वैसे असर होता है...तो क्या ये नाम का असर ...?

'साक्षी' एक नाम है कितना प्यारा सा और सुंदर. उपन्यास में सबके नाम बिगाड़ कर लिखे गये हैं.. साक्षी को भी साक्षिया या कुछ ऐसा ही होना चाहिए था. लेकिन उसे प्रेमपत्र लिखते हुए उसका नाम 'साक्षी' ही रहने दिया गया है.... प्रेम जो न सिखा दे ...

बालमन की प्रीत जो कभी स्मृतियों से ओझल नही होती ..कलम चूमना, दिखाना की मुझे इस कलम से कितना लगाव है...और भी बहुत सारी विह्वल करती हुयी पंक्तियाँ...कितना सलोना एहसास...

बालमन, नासमझी से ओत-प्रोत...यूँ ही होता है. जब बड़े हमें कुछ और समझा दें...और हम वही सच मान लेते हैं...पर क्या सच दबा रह पाता है ... बाहर नहीं आने दिया गया तो उपन्यास में आ गया ...

सयुंक्त बड़े परिवारों में, बड़े होते बच्चों को ख्याल में नहीं रखा जाता, तो बच्चे जल्दी बड़े हो जाते हैं ...जैसा साक्षी के साथ हुआ...और फिर राह में चल पड़ने वाले मुसाफिर का मन रुकता कहाँ है ....

एक जगह मास्साब का यह सोचना कि--भगवान कहीं, आँख का अंधा और गाँठ का भरपूर समधी भी दिए होंगे... दहेज़ का लालच इंसान से जो न करवाए...

छौंड़ी का अर्थ लड़की// मन बाग़-बाग़ हो उठा ये शब्द पढ़कर ...

आज भी हमारे बिहार के उस आदिवासी इलाके में डायनो की किस्से सुनने को मिलते हैं...पृष्ट संख्या तीन का वर्णन आँखों के सामने तैर रहा है... ऐसा देखा भी है. गाँव के सिवान पर निकाल दी गयी थी हमारे यहाँ भी एक औरत, जिसे डायन करार दे दिया गया था...

और हाँ ! मुझे लगता है उसे ही डायन कहा जाता है, जिसकी संपत्ति हड्पनी होती थी.
''डायन के साथ यह अनकही सी शर्त भी होती होगी शायद कि उसके आगे पीछे कोई न हो''...कितनी बड़ी बिडम्बना है न हमारे समाज की ,कि घर में पुरुष ना हो तो उसे कुछ भी कोई कह दे ,,गाँव निकाला दे दे ...पति मरते समय नीला पड़ गया...सांप काट दिया होगा...पर ...क्यूंकि वह एक अबला थी..जिसके ऊपर किसी पुरुष की छत्र-छाया नहीं थी तो उस इल्जाम लग गया की खून पी कर पति को खा गयी...

(मुझे याद है...नंगे, मुंह में कालिख पोत कर, बाल मुड़ाकर आगे-आगे उस औरत को जिसे डायन कहा जाता था और पीछे से गाँव के लोग ..हुडदंग मचाते ..डायन चिल्लाते उसे पूरे गाँव में घुमाते हैं... ... जबकि, मुझे याद है कि, वहां एक ऐसी ही औरत के यहाँ मैं कई बार भोजन की हूँ ...बहुत प्यार करती थी ओ मुझे...लोग उसको कहते थे डायन, और कभी मुझे देख लिया उनके साथ, तो पापा से भी कह देते थे, एक बार हल्ला भी मचा था की मुखिया जी की बेटी उसके यहाँ खाती है... पर पापा ने मुझे कभी कुछ नही कहा ...कुछ सुधार होना शुरू हो गया था इन परम्पराओं का ...लेकिन, अभी भी बिहार में बहुतायत में ऐसा देखने को मिल जाता है ...)

उपन्यास में जगह-जगह जिन कवियों की पंक्तियों को इस्तेमाल किया गया है बहुत ही सुन्दर है...

पूरे उपन्यास में जीवन के बहुत से उतार चढ़ाव आये हैं, जो पाठकों को एक लय में बांधे रखते हैं व् बिन रुके पढने को मजबूर करते है, इस उपन्यास के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाये आपको...


 
http://www.tadbhav.com/.../component/content/article...

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TADBHAV a free hindi magazine focuses on society, stories, poems, discussion, etc. All of these you can read here in www.tadbhav.com

''उन्हें... जो काते हुए को बुनेंगे '

माया मृग जी की पुस्तक .. 'कात रे मन...कात' ...छोटे आकार में बड़ी पुस्तक ....  
एक नजर 'कात रे मन...कात' को...देखते हुए

 

..और जो समर्पित है
''उन्हें... जो काते हुए को बुनेंगे ''...वाह !

ऐसे समय में जब कातना, बुनना, जीवन जीने की यह सब कलाएं, पीछे छूट चुकी हो..कितना सुखद लगता है न कवि से ये शब्द सुनना, जैसे मद्धम सुर में कहीं सितार बज रहे हों...कवि कातने की बात करे तो बहुत कुछ सोचने जैसा हो जाता है ...गांधी याद आने लगते हैं और उनके साथ जुड़ा कितना कुछ ...आपके इस संकलन में कितना कुछ है.. जीवन खट्टे-मीठे अनुभव जो कभी, आँखे भर लाते है, कभी शहद सी खुशियों का एहसास दिलाते हैं. प्यार और उसकी चुभन और उसकी टूटन से ओत प्रोत...

"टूटकर निभाई मर्यादाएं भी... मित्रताएं भी टूटने का वक्त है, जाने क्या टूट जाए..."

सब अस्थिर है. सब टूटता है फिर फिर जुड़ता है, बस, टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया ही स्थायी है

"रात की सियाही को छुआ तुमने तो, सबेरा हो गया.. तुम्हारी छुअन सियाही में घुली सी क्यूं है..."

वाह ! कहे बिन न रह सकी !

"तुम्हारी दी अंगूठी का हीरा... जब चमकता है तब बहुत चमकता है.. काटता है तो ... बहुत काटता है..." ...प्यार के यह दोनों रूप आपने दिखला दिए..

सोलहवें पृष्ठ पर है..''हार कर देखा कभी...? '' बरवस मेरे मुंह में अपनी ही एक पंक्ति अपने को दुहराने लगी ... "कई बार... जब-जब हारी और जीने, और हारने की चाह जगी ''

सत्रहवें पृष्ठ पर ' "वह हँसा ...खुली हँसी...(वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)

वह हँसी...खुली हंसी...(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने) "

भेद-भाव का यह कितना कटु सत्य है हमारे समय का. एक भावुक हृदय कवि ही स्त्री मन का 'मनन और गुनन' कर सकता है !

"बंद कमरे मैं गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री..."

पढ़कर..सोचने को मजबूर हो गयी...सब कुछ तो सच में ऐसा ही है..?

'कितना हँसते थे हम'' ये पंक्ति पढ़कर अतीत में जाए बगैर नही रह सकी ...कितना हँसते थे हम और आज बस याद करते हैं उस बीते अतीत को !

"ये हमने क्या किया ... लक्ष्मी को बुलाने के लिए हमने उल्लुओं को पिंजरें में डालना शुरू कर दिया... डालना तो उनको था जिन्होंने हमें उल्लू बनाया.. (तब आतीं लक्ष्मी तो...अपार)"

यह बात कुछ समझ में आई कुछ नहीं...

लेकिन माया जी क्या कहने हैं आपके ...छोटी छोटी रचनाएं समुन्द्र सी गहराई लिए हुए है, शब्दों का चयन यूँ किये हैं जो पाठकगण आसानी ग्रहण कर सके जबकि सरल और बिरल दोनो तरह के शब्द विन्यास हैं इस पुस्तक में .. बिखरना और समेटना जीवन का रंग है जहाँ हम कभी खुद को हारते हैं तो जीतते भी हैं ,ये रंग आता जाता रहता है,

"'ढूँढना जारी रहेगा... मेरा भी... तुम्हारा भी... तुम विकल्प ढूंढो... मुझे वह ढूँढने दो... जो सब विकल्प ख़त्म होने के बाद शुरू होता है..."

---वाह अद्भुत पंक्तियाँ ..कवि को ही पुल बनाने पड़ते हैं!

"कात रे मन ...कात...कातेगा तो बुनेगा...बुनेगा तो ओढेगा...सब ओढ़ कर जीते हैं, तू भी ओढ़ कर जी ..." निशब्द हूँ, आदरणीय माया जी, और आभारी भी कि मुझे इस पुस्तक  को पढने योग्य आपने मुझे
समझा बहुत-बहुत मंगल कामनाओं सहित ..
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