अमरकांत जी कीअधिकतर कहानियों में स्त्री विमर्श ही मिलेगा।
"मुझे लगता है,
यदि मध्य और निम्न मध्य वर्ग की पारिवारिक -सामाजिक विसंगतियों
और स्त्रियों के जीवन की #मूक_आह..
चेहरे पर दिखती मुस्कानों-आश्वस्तियो के नेपथ्य में छलछलाती #कराह
और मीठे खाकर भी ...मुंह मे चुभलाता #कसैला_कड़वा_स्वाद...
हर उत्साही पल से रिसता हुआ स्थाई भाव की नाईं,घर जमाये बैठे #अवसाद की विडम्बना को अमरकांत शिद्दत से अनुभूत नही कर पाये होते
तो उनका कहानीकार बनना ही सम्भव न हो पाया होता!
स्वाभाविक है, उनकी कहानियों की नाभिकीयता इन्ही के आस पास सांद्रित है। जितने भी नामचीन रचनाकार हुए ,स्त्री को आगे रखकर ही आगे बढ़ पाये। जिसने स्त्री को जितना बूझा, पाठकों ने उस रचनाकार को उतना ही बड़ा और सच्चा रचनाकार समझा-माना! रचना पद्य में रची गयी हो...या गद्य में!
कालिदास का मेघदूत हो...
शेक्सपियर का ओथेलो हो..ट्वेल्थ नाईट हो...शरत के उपन्यास तो स्त्रियों की कहानी से बाहर कुछ है भी नही..
दिनकर की उर्वशी या जयशंकर की कामायनी या तितली...नागार्जुन की रतिनाथ की चाची..पारो ...राजकमल चौधरी की 'मरी हुई मछली' हो या रेणु की कहानी 'तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम' या फिर राजेन्द्र सिंह बेदी की "एक चादर मैली सी"।
संदर्भ अमरकांत जी हैं तो मैं कहना चाहूंगी कि अमरकांत ने स्त्रियों को अपनी कहानियों में नही डाला, स्त्रियों की अनकही व्यथा की चट्टानों ने..अनसुलझी लोक विडम्बनाओं की उद्दाम लहरें अमरकांत को धकेलकर कहानियों में ले आई।
अमरकांत जी का एक बहुत ही प्रख्यात उपन्यास है'सुन्नर पांडे की पतोह' यह उपन्यास पति द्वारा परित्यक्त राजलक्षी नाम की उस स्त्री की कहानी है जो न केवल नर भेड़ियों से भरे समाज मे अपनी अस्मत बचाके रखती है बल्कि कुछ लोगों के लिए प्रेरणा की श्रोत भी है।एक स्त्री की इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि विवाह के बाद अक्सर उसकी निजता छीन ली जाती है और उसे एक नया जामा पहना दिया जाता है,फलाने की पतोह,फलाने की मेहरारू और फलाने की माई।राजलक्ष्मी के साथ भी यही हुआ,ससुराल आते ही उसका नामकरण हो गया'सुन्नर पांडे की पतोहू' !
सुन्नर पांडे की पतोहू का पति झूलन पांडे एक दिन उसे छोड़कर कहीं चला जाता है और फिर लौट कर कभी नही आता है। राजलक्ष्मी पति की निशानी सिंदूर के साथ अंतहीन इंतज़ार करती है,लेकिन एक रात जब अपने सास ससुर की बातें सुनती है तो पांवों तले जमीं खिसक गई और वह गाँव,घर,देवता पित्तर,नदी पोखर,पंक्षियों को प्रणाम कर अनजानी राह पर चल पड़ती है।
जिस समाज मे स्त्री अपने घर पर ही सुरक्षित नही वह समाज मे क्या सुरक्षित रहेगी? फिर भी घर से निकल समाज के हर भेड़ियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि समाज के स्त्रियों की नज़र में उनकी प्रेरणाश्रोत बनती है।
अमरकांत जी की एक और उपन्यास है 'काले उजले दिन'
इस उपन्यास के पात्र अभिशापों से ग्रस्त हैं। इस उपन्यास में भी आज के समाज व्यवस्था के परिवर्तन के साथ नारी की स्वतंत्रता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है।इस उपन्यास में भी मुख्य पात्र में एक स्त्री ही है जिसका नाम रजनी है जिसका त्याग उसके जीवन का सुख -दुःख ममता और प्रेम भावना आंसुओं से ही भींगी है।
एक और लघु उपन्यास है 'सुरंग' जो नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है।इसकी पात्र बच्ची देवी शिक्षा ग्रहण करते हुये आस-पास की स्त्रियों की मदद से सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों की लड़ाई लड़ती है।
अमरकांत जी का एक और उपन्यास है 'ग्रामसेविका'।
जिसकी मुख्य पात्र दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते 'ग्रामसेविका' की नौकरी करती है। पर उसके इस कदम को गांव की स्त्रियां आशंका की दृष्टि से देखती है। उसके ऊपर व्यंग्य बाण चलाती है। दमयंती के बारे में औरतें कहती है कि---बाबा रे किस तरह छलक कर चलती है।लाज हया धोकर पी गई है। मर्दों के साथ किस तरह मटक-मटक कर बात करती है।सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन।
धर्म नाशने आई है।
गांव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते हैं पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि 'स्त्री के दिल में कामना स्वयं नही जगती...बल्कि जगाई जाती है'। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है।जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है।
अमरकांत जी मध्यवर्गीय समाज के चारित्रिक व व्यवहारिक दोगलेपन को दिखाते हुये स्त्री के प्रति उसके दृष्टिकोण को भी व्यक्त करते हैं।'दमयंती' जिसे दहेज रूपी दानव द्वारा ठुकराया जाता है।दहेज लोलुपों से वह बदला लेना चाहती है।अपने साहस संघर्ष द्वारा वह ग्रामसेविका का पद पाती है। वह ग्रामीण समाज के रूढ़िवादी संस्कारों और अंधविश्वासों की गिरफ्त से छटपटाते हुए को बदलना चाहती है। अपनी अज्ञानता के कारण गरीब लोग जहाँ धर्म के ठेकेदारों द्वारा आक्रांत थे,वहीं जोंक की तरह चिपके सूदखोरों के जुल्मों से उत्पीड़ित भी थे। इन्ही सब सामाजिक व्यवस्था को बदलने की चाहत लिये दमयंती जुटी रहती है कि अचानक उसके जीवन मे हरिचरण प्रवेश करता है,जिसके कारण उसके जीवन में उथल-पुथल मचता है और जीवन की दिशा ही बदल जाती है।
अमरकांत जी की कहानियों का दायरा निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आस-पास केंद्रित मिलेगा।इनकी कथासाहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,उनका शोषण,स्त्री पुरुष सम्बन्धों का बिखराव और पवित्र सम्बन्धों की आड़ में शारीरिक शोषण जैसी बातें देखा जा सकता है।
उनकी कहानी 'पलाश के फूल' में अजोरिया नामक स्त्री के साथ गांव के ही रायसाहब शोषण करते हुये दिखते हैं ।कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, 'स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखैल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महसूस होने लगता है।--- तो 'महुआ' कहानी के अनिलेश का मानना था कि 'भवसागर में स्त्रियां मछलियाँ हैं और वह मछुआ' । उसके हिसाब से जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है।
एक और कहानी 'मुक्ति'में मुख्य पात्र मोहन अपनी पत्नी को छोड़कर मधु नाम की स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाये रखता है।
एक और कहानी 'दोपहर का भोजन’ में भी एक अलग प्रकार की स्त्री का चरित्र अमरकांत सामने लाते हैं । यह कहानी निर्मम तटस्थता के साथ एक परिवार के माध्यम से समूचे निम्न-वर्ग के पीड़क अभावों को अंकित करती है । अभावग्रस्त जीवन पर एक पीड़ादायी व्यंग्य है।
कहानी को सीधे-सपाट ढंग से कहने के सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी का यह कथन उल्लेखनीय है—“ दोपहर का भोजन जैसी कहानियाँ अमरकांत की कहानियों में एक खास स्थान रखती हैं । ऐसी कहानियों के लिए अमरकांत को बुनावट की आवश्यकता नहीं होती है जो मार्मिक बनाए जाने के लिए काम में लाए जाते हैं।ऐसी कहानियाँ प्रेमचंद ने बड़ी सफलता से लिखी है। प्रेमचंद के बाद साधारण जीवन के कथ्य पर ऐसा सहज अधिकार अमरकांत में ही मिलता है।
दिन रविवार 27 नवम्बर 1988 को जनसत्ता में अमरकांत जी का एक साक्षात्कार छपा था,साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था,इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया कि जीवन के कई घटनाओं को देखने सुनने से ही रचना को लिखने की प्रेरणा हुई और उन्होंने यह भी बताया कि एक कहानी लिखी थी 'सुहागिन' नाम से। छपी नही...बल्कि उन्होंने छपने के लिए कहीं भेजी ही नही। उन्होंने बताया कि उसमे भी एक अशिक्षित स्त्री ही है जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है,उस संवेदनशील... संघर्षशील स्त्री ने बिना सहारे के अपनी ज़िंदगी काट देती है।उसे उपयुक्त परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।
यह पूछे जाने पर कि उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोहू' के पीछे उनकी मानवीय सामाजिक व राजनीतिक चिंता क्या है?
तो अमरकांत जी कहते हैं समाज मे स्त्रियां जो विडम्बनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं उसी से सम्बंधित रचना है।हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नही मिल पाती,जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं के बीच काफ़ी लम्बी चौड़ी खाई नजऱ आती है इसलिए वह समाज मे कारगर भूमिका अदा नही कर पाती।
अमरकांत जी के उपरोक्त वक्तब्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परिचित थे। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी मान-मर्यादा,प्रतिष्ठा और स्त्रीत्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्रियों की जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत जी ने अपनी कहानियों उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती
https://nationalfrontier.in/vasundhra-pandey-artical/
वसुन्धरा पाण्डेय
इलाहाबाद
"मुझे लगता है,
यदि मध्य और निम्न मध्य वर्ग की पारिवारिक -सामाजिक विसंगतियों
और स्त्रियों के जीवन की #मूक_आह..
चेहरे पर दिखती मुस्कानों-आश्वस्तियो के नेपथ्य में छलछलाती #कराह
और मीठे खाकर भी ...मुंह मे चुभलाता #कसैला_कड़वा_स्वाद...
हर उत्साही पल से रिसता हुआ स्थाई भाव की नाईं,घर जमाये बैठे #अवसाद की विडम्बना को अमरकांत शिद्दत से अनुभूत नही कर पाये होते
तो उनका कहानीकार बनना ही सम्भव न हो पाया होता!
स्वाभाविक है, उनकी कहानियों की नाभिकीयता इन्ही के आस पास सांद्रित है। जितने भी नामचीन रचनाकार हुए ,स्त्री को आगे रखकर ही आगे बढ़ पाये। जिसने स्त्री को जितना बूझा, पाठकों ने उस रचनाकार को उतना ही बड़ा और सच्चा रचनाकार समझा-माना! रचना पद्य में रची गयी हो...या गद्य में!
कालिदास का मेघदूत हो...
शेक्सपियर का ओथेलो हो..ट्वेल्थ नाईट हो...शरत के उपन्यास तो स्त्रियों की कहानी से बाहर कुछ है भी नही..
दिनकर की उर्वशी या जयशंकर की कामायनी या तितली...नागार्जुन की रतिनाथ की चाची..पारो ...राजकमल चौधरी की 'मरी हुई मछली' हो या रेणु की कहानी 'तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम' या फिर राजेन्द्र सिंह बेदी की "एक चादर मैली सी"।
संदर्भ अमरकांत जी हैं तो मैं कहना चाहूंगी कि अमरकांत ने स्त्रियों को अपनी कहानियों में नही डाला, स्त्रियों की अनकही व्यथा की चट्टानों ने..अनसुलझी लोक विडम्बनाओं की उद्दाम लहरें अमरकांत को धकेलकर कहानियों में ले आई।
अमरकांत जी का एक बहुत ही प्रख्यात उपन्यास है'सुन्नर पांडे की पतोह' यह उपन्यास पति द्वारा परित्यक्त राजलक्षी नाम की उस स्त्री की कहानी है जो न केवल नर भेड़ियों से भरे समाज मे अपनी अस्मत बचाके रखती है बल्कि कुछ लोगों के लिए प्रेरणा की श्रोत भी है।एक स्त्री की इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि विवाह के बाद अक्सर उसकी निजता छीन ली जाती है और उसे एक नया जामा पहना दिया जाता है,फलाने की पतोह,फलाने की मेहरारू और फलाने की माई।राजलक्ष्मी के साथ भी यही हुआ,ससुराल आते ही उसका नामकरण हो गया'सुन्नर पांडे की पतोहू' !
सुन्नर पांडे की पतोहू का पति झूलन पांडे एक दिन उसे छोड़कर कहीं चला जाता है और फिर लौट कर कभी नही आता है। राजलक्ष्मी पति की निशानी सिंदूर के साथ अंतहीन इंतज़ार करती है,लेकिन एक रात जब अपने सास ससुर की बातें सुनती है तो पांवों तले जमीं खिसक गई और वह गाँव,घर,देवता पित्तर,नदी पोखर,पंक्षियों को प्रणाम कर अनजानी राह पर चल पड़ती है।
जिस समाज मे स्त्री अपने घर पर ही सुरक्षित नही वह समाज मे क्या सुरक्षित रहेगी? फिर भी घर से निकल समाज के हर भेड़ियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि समाज के स्त्रियों की नज़र में उनकी प्रेरणाश्रोत बनती है।
अमरकांत जी की एक और उपन्यास है 'काले उजले दिन'
इस उपन्यास के पात्र अभिशापों से ग्रस्त हैं। इस उपन्यास में भी आज के समाज व्यवस्था के परिवर्तन के साथ नारी की स्वतंत्रता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है।इस उपन्यास में भी मुख्य पात्र में एक स्त्री ही है जिसका नाम रजनी है जिसका त्याग उसके जीवन का सुख -दुःख ममता और प्रेम भावना आंसुओं से ही भींगी है।
एक और लघु उपन्यास है 'सुरंग' जो नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है।इसकी पात्र बच्ची देवी शिक्षा ग्रहण करते हुये आस-पास की स्त्रियों की मदद से सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों की लड़ाई लड़ती है।
अमरकांत जी का एक और उपन्यास है 'ग्रामसेविका'।
जिसकी मुख्य पात्र दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते 'ग्रामसेविका' की नौकरी करती है। पर उसके इस कदम को गांव की स्त्रियां आशंका की दृष्टि से देखती है। उसके ऊपर व्यंग्य बाण चलाती है। दमयंती के बारे में औरतें कहती है कि---बाबा रे किस तरह छलक कर चलती है।लाज हया धोकर पी गई है। मर्दों के साथ किस तरह मटक-मटक कर बात करती है।सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन।
धर्म नाशने आई है।
गांव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते हैं पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि 'स्त्री के दिल में कामना स्वयं नही जगती...बल्कि जगाई जाती है'। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है।जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है।
अमरकांत जी मध्यवर्गीय समाज के चारित्रिक व व्यवहारिक दोगलेपन को दिखाते हुये स्त्री के प्रति उसके दृष्टिकोण को भी व्यक्त करते हैं।'दमयंती' जिसे दहेज रूपी दानव द्वारा ठुकराया जाता है।दहेज लोलुपों से वह बदला लेना चाहती है।अपने साहस संघर्ष द्वारा वह ग्रामसेविका का पद पाती है। वह ग्रामीण समाज के रूढ़िवादी संस्कारों और अंधविश्वासों की गिरफ्त से छटपटाते हुए को बदलना चाहती है। अपनी अज्ञानता के कारण गरीब लोग जहाँ धर्म के ठेकेदारों द्वारा आक्रांत थे,वहीं जोंक की तरह चिपके सूदखोरों के जुल्मों से उत्पीड़ित भी थे। इन्ही सब सामाजिक व्यवस्था को बदलने की चाहत लिये दमयंती जुटी रहती है कि अचानक उसके जीवन मे हरिचरण प्रवेश करता है,जिसके कारण उसके जीवन में उथल-पुथल मचता है और जीवन की दिशा ही बदल जाती है।
अमरकांत जी की कहानियों का दायरा निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आस-पास केंद्रित मिलेगा।इनकी कथासाहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,उनका शोषण,स्त्री पुरुष सम्बन्धों का बिखराव और पवित्र सम्बन्धों की आड़ में शारीरिक शोषण जैसी बातें देखा जा सकता है।
उनकी कहानी 'पलाश के फूल' में अजोरिया नामक स्त्री के साथ गांव के ही रायसाहब शोषण करते हुये दिखते हैं ।कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, 'स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखैल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महसूस होने लगता है।--- तो 'महुआ' कहानी के अनिलेश का मानना था कि 'भवसागर में स्त्रियां मछलियाँ हैं और वह मछुआ' । उसके हिसाब से जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है।
एक और कहानी 'मुक्ति'में मुख्य पात्र मोहन अपनी पत्नी को छोड़कर मधु नाम की स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाये रखता है।
एक और कहानी 'दोपहर का भोजन’ में भी एक अलग प्रकार की स्त्री का चरित्र अमरकांत सामने लाते हैं । यह कहानी निर्मम तटस्थता के साथ एक परिवार के माध्यम से समूचे निम्न-वर्ग के पीड़क अभावों को अंकित करती है । अभावग्रस्त जीवन पर एक पीड़ादायी व्यंग्य है।
कहानी को सीधे-सपाट ढंग से कहने के सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी का यह कथन उल्लेखनीय है—“ दोपहर का भोजन जैसी कहानियाँ अमरकांत की कहानियों में एक खास स्थान रखती हैं । ऐसी कहानियों के लिए अमरकांत को बुनावट की आवश्यकता नहीं होती है जो मार्मिक बनाए जाने के लिए काम में लाए जाते हैं।ऐसी कहानियाँ प्रेमचंद ने बड़ी सफलता से लिखी है। प्रेमचंद के बाद साधारण जीवन के कथ्य पर ऐसा सहज अधिकार अमरकांत में ही मिलता है।
दिन रविवार 27 नवम्बर 1988 को जनसत्ता में अमरकांत जी का एक साक्षात्कार छपा था,साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था,इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया कि जीवन के कई घटनाओं को देखने सुनने से ही रचना को लिखने की प्रेरणा हुई और उन्होंने यह भी बताया कि एक कहानी लिखी थी 'सुहागिन' नाम से। छपी नही...बल्कि उन्होंने छपने के लिए कहीं भेजी ही नही। उन्होंने बताया कि उसमे भी एक अशिक्षित स्त्री ही है जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है,उस संवेदनशील... संघर्षशील स्त्री ने बिना सहारे के अपनी ज़िंदगी काट देती है।उसे उपयुक्त परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।
यह पूछे जाने पर कि उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोहू' के पीछे उनकी मानवीय सामाजिक व राजनीतिक चिंता क्या है?
तो अमरकांत जी कहते हैं समाज मे स्त्रियां जो विडम्बनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं उसी से सम्बंधित रचना है।हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नही मिल पाती,जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं के बीच काफ़ी लम्बी चौड़ी खाई नजऱ आती है इसलिए वह समाज मे कारगर भूमिका अदा नही कर पाती।
अमरकांत जी के उपरोक्त वक्तब्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परिचित थे। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी मान-मर्यादा,प्रतिष्ठा और स्त्रीत्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्रियों की जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत जी ने अपनी कहानियों उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती
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वसुन्धरा पाण्डेय
इलाहाबाद