Friday, June 27, 2014

कविता संग्रह ''शब्द नदी है '' पर /कवि आलोचक श्रीरंग की समीक्षा

कविता संग्रह ''शब्द नदी  है '' पर /कवि आलोचक श्रीरंग ने इस संग्रह की बेहतरीन समीक्षा की है
/इस समीक्षा पर टिप्पड़ी करते हुए कवि आलोचक ओम निश्चल जी ने लिखा है कि:-''मैंने भी ये कविताएं पढ़ी हैा। इनमें एक सहृदय स्‍त्री की कूक, उल्‍लास और संवेदना दृष्‍टिगत होती है। इन कविताओं से लगता है जीवन अनुरागमय है और इसी अनुरागमयता में जीवन है। यथार्थ की खुरदुरी स्‍थितियों में भी वसुंधरा जी जीवन को सकारात्‍मक नज़रिये से देखती हैं। ये कविताएं गमले में उगाए गए उन फूल पोधों जैसी हैं जो कविता के पर्यावरण को हरा-भरा बनाए रखती हैं। इन्‍हें पढते हुए मुझे प्‍यार के झीने संकेतों से भरी कुंवर नारायण की यह कविता याद आती है:
रात मीठी चांदनी है
मौन की चादर तनी है
एक मुझमें रागिनी है
जो कि तुमसे जागनी है।

वसुंधरा जी ने जिस तरह डूब कर ये कविताएं लिखी हैं, उतनी ही उदारहृदयता से श्रीरंग जी ने समीक्षा में रंग भरे हैं। क्‍या करूँ कि फिर यह पंक्‍ति राह रोक लेती है: 'शिव को सराहौं कै सराहौं छत्रसाल को।"" विवेक निराला /हरेप्रकाश उपाध्याय/ राहुल देव आदि कवियों ने वसुन्धरा जी को शुभकामनायें दी है
प्रस्तुत है श्रीरंग की समीक्षा पुस्तक समीक्षा :

‘ शब्द नदी है : शब्द नदी में स्त्री
• श्रीरंग
वसुन्धरा पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘शब्द नदी है ‘ अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है ! वसुन्धरा के इस कविता संग्रह में प्रेम केन्द्रीय विषय है ! प्रेम और उसकी विभिन्न परिणतियों के इर्द गिर्द बुनी गयी कविताएँ जीवन के शाश्वत मूल्यों का संवर्धन करती है और क्षरण के प्रतिरोध में अपना हस्तक्षेप दर्ज करती है !
इधर प्रेम के व्यापार में बड़ी गिरावट आ गई है ! अब प्रेम का मतलब अपने लिए सब कुछ इच्छित और सुखद हासिल कर लेना है ! प्रेम का प्रतिमान बदला है ! कभी प्रेम सफलता का प्रतिमान हुआ करता था अब सफलता प्रेम का प्रतिमान हो गयी है ! आज प्रेम में असफल प्रेमी तेजाब फेंक देते हैं या चाकू मार देते हैं ! पहले प्रेमी चाहता था उसका चाहें जो हो प्रेमिका का अनभल न हो लेकिन आज यदि प्रेमी का कुछ बिगड़ता है तो वह दूसरे का सब कुछ बिगाड़ देना चाहता है ! इस बदले वातावरण में वसुन्धरा की कविताएं प्रेम के शाश्वत मूल्यों को स्थापित करती है ! यह मीठी और सोंधी प्यास की कविता है –

एक मीठी आस तेरी
एक सोंधी प्यास तेरी
तेरा सानिध्य
जैसे बसंत में बौराता आम
कसमसाता टेसू, गुलमोहर...

आज जहाँ आदमी प्रेम के योग्य होता जा रहा है औरत आज भी प्रेम के लिए सबसे योग्य है ! लेकिन आज औरत का प्रेम के लिए उपयुक्त होना उसकी अयोग्यता होती जा रही है ! प्रेम उसके हृदय में है ! इसलिए प्रेम में वह ठगी जाती है ! प्रेम में जुनून होता है ! औरत इस जुनून में सब कुछ त्याग देती है ! वह इसके लिए मर सकती है !औरत प्रेम में है तो समझो प्रेम में है, अपादमस्तक प्रेम में ! औरत पूरी इमानदारी से प्रेम करती है ! वह पुरुष से ज्यादा प्रेम के योग्य ठहरती है! औरत की जैविक संरचना का मिजाज ही ऐसा कि वह प्यार को जीवन में ज्यादा जगह दे सकती है ! उसका शरीर ही नहीं मन भी कोमल होता है ! यह मन की कोमलता वसुन्धरा की कविताओं में जगह-जगह दर्ज है और प्रेम,मन की कोमलता को हरा भरा कर देता है –
तेरी आवाज
दूर से / खिल-खिलाता सा कोई बादल
गीली-गीली धूप में / तर-ब-तर लिपटा जैसे प्यार
चुपके से उतरकर / धरती के अंतस को
भिगोने लगा है
पत्ता-पत्ता / हरा होने लगा है !
औरत की खासियत है कि वह बार-बार ठगे जाने के बावजूद खुद को दुनिया पर भरोसा कर लेने के लिए बार-बार तैयार कर लेती है ! उसकी यह मौलिक सहजता है जिसकी वजह से वह ठगी और छली जाती है ! प्रेम की उसकी योग्यता हीं उसे आसान शिकार बना डालती है ! बलात्कार से हत्या तक सब कुछ घट जाता है! लेकिन औरत प्रेम करना नहीं छोडती! तमाम डर और भय ,घबराहट के बावजूद वह प्रेम में कूदती है और बहुत गहरे तक उतरती है!
रात जगती / दिन सोती हूँ,
नींद में भी नींद कहाँ
तेरे ख्याल,तेरे सपने / तू और तू, बस तू ...!
मेरा वह मछेरा / फैलाता जाल, कब तक बचूँगी
जला में फंसने से उसके व्याकुल मैं कितनी ...!
( यह भी क्या )
लट्टू की लपेट / तेरा यह प्यार
मैं नाच रही हूँ / गोल-गोल
अपनी ही धुरी पर / जैसे नाच रहा ब्रम्हांड ...!
( लट्टू की लपेट )
प्रेम में डूबी स्त्री के दिन रात बिल्कुल अलग होते हैं ! दुनिया अलग होती है ! दृष्टि अलग होती जाती है ! मौसम अलग होते जाते हैं ! दुःख और टीस के टपकने का भी अपना मजा होता है—
रात भर सपने / तितलियों से उड़ते रहे
मेरे भीतर / जैसे रात
रात न हो / बसंत हो...!
दिन भर / होती रही बारिश
धारमधार भीगते रहे / खेत खलिहान...दूर वृक्षों से
टपकता रहा दुःख / टप – टप – टप – टप...!
( उसने कहा था )
वसुन्धरा की कविताओं में केवल भाषा की सजावट नहीं है ! यह उनका प्रेम है जो शब्द रूप में उजागर होता है ! इन कविताओं में स्त्री की पूरी पहचान दर्ज होती है ! उसकी छटपटाहट उसकी वेदना, पीड़ा मुखर होती है! स्त्री की तलाश उसकी बेचैनी का आइना हैं ये कवितायेँ!
सूरज घुटे तो घुटे /चाँद छीजे तो छीजे
अपना तो तितली सा मन / प्रीत का वरदान उड़ेगा..!
(सूरज घुटे तो घुटे )
वसुन्धरा की कविताओं की छटपटाहट स्त्री जीवन की बेचैनी है! यथार्थ से मुठभेंड है! आम्रपाली का दर्द आज की स्त्री का भी दर्द है ! समय बदला पर नियति नहीं बदली---
कुलवधू नहीं / नगर वधू बनना था
उस अभिशप्त सौन्दर्य को / वंचित करते हुए उसे
उसकी नैसर्गिक प्रीत से / क्या आज भी वैशाली के
उस नियम में / बदलाव नजर आता है...!
( आम्रपाली )

वसुन्धरा की कविताओं में प्रेम के अनेकानेक चित्र हैं! संबोधनों की विविधता है ! प्रेम है, उलाहना है, समर्पण है, राग है अनुराग है! खट्टी-मिठी यादें है,सुनहरी परिकल्पना है! उनका बांवरा मन प्रियतम की स्मृतियों में हरपल खोया रहता है उसकी ही आवाज को अनकता है ! यह प्रेम ही है जिसके हवाले से वे कविता का संसार रचती हैं, चाहे-अनचाहे इधर-उधर की, दूर पास की कविता का संसार ! स्त्रीत्व का चरमोत्कर्ष के बीच यहाँ अवर्चनीय पुलक गोचर होता है ,जिसे वह सजोना चाहती है ! प्यार होने और गलती होने के द्वंद भी है किन्तु प्यार के लिए -- अपनी निर्मिती के लिए उलाहना नहीं है ! वे अपने बीच दीवारों और सरहदों को मिटा देना चाहती हैं ! नदी हो जाना चाहती हैं !
काश सरहदें / तेरे मेरे बीच की
मिट ही जाएँ पंछी बन दूर के आकाश में
हम किनारे न रहें / नदी हो जाएँ..!
( काश सरहदें )
वसुन्धरा का रचना संसार प्रेम का संसार है! यहाँ कुतूहल और जिज्ञासाओं के प्रश्न भी है उत्तर भी ! वे आसमान के चादर में झिलमिलाती तमन्नाएँ काढ़ती हैं! शब्दों के प्याले में मुहब्बत की शराब छलकाती हैं ! प्रेम में डूबी महकी-महकी और बहकी-बहकी घूमती हैं ! पुरुष की हृदयहीनता उनसे छिपी नहीं है लेकिन जानती हैं सूरज लोकाचार है और चाँद प्यार है ! जहाँ एक पल के आगमन में जनम-जनम की प्यास छिपी है! यह रूह से महसूसने की कविता है ! जो अल्फाज की मोहताजगी से मुक्त होना चाहती हैं !
वसुन्धरा प्रेम की दुश्वारियों से भी अनभिज्ञ नहीं हैं , वह कविता में ही नहीं जीवन में रहती हैं, राह में बिछे अंगारों पर फिरती हैं और अपनी कविता की धूप में अपने प्रिय को भी चलाना चाहती हैं, बावजूद इसके कि पतंग की डोर कहीं और है ! इस कविता में इंतज़ार की तड़प है तो मिलन का सुख भी, यह सब इतना सुन्दर है कि छूने की चाहत में मन बिंध जाता है—
तन फड़फड़ाये / बिन छुए रहा भी न जाए
ओ गुलाब / तू मेरे प्रिय के जैसा क्यूँ है रे...!
( इतना सुन्दर )
वसुन्धरा की कवितायेँ स्त्री मन के कसक की कवितायेँ है ! उसके लिए प्यार हर मौसम का बसंत है ! प्रेम ही उसका पथ है ,जिसमे शिद्दत से जीना नशा ,जुनून और जुआ भी है !
यह कविता मीलों दौड़ के आई प्यारी स्त्री के प्रेम की कविता है ! यह हमारे समय के सन्नाटे को तोडती है और प्रेम की पुकार के राग में वातावरण को अनुरागमय बनाती है ! कविता में प्रेम की वापसी के लिए यह सुखद है ! आज हमारे जीवन से प्रेम लुप्त होता जा रहा है बाजारवाद सब पर हावी है ! वसुन्धरा की कवितायेँ बिना नारेबाजी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की वापसी की तरफदारी करती है और उसे स्थापित करने की मुहिम भी चलाती है ! इन कविताओं का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए !
कृति : शब्द नदी है
कवि : वसुन्धरा पाण्डेय
मूल्य : 80 / रूपये
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
समीक्षक : श्रीरंग
128 एम / 1 आर कुशवाह मार्केट
भोला का पूरा ,प्रीतम नगर इलाहाबाद-
मोबाईल -9335133894

साहित्‍य अमृत के जुलाई अंक में प्रकाश्‍य आलेख की मूल और अविकल प्रति

http://samalochan.blogspot.in/2014/06/blog-post_25.html