Thursday, January 2, 2014

अभी भी पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..


आंचलिक पृष्ठभूमि पर हरेप्रकाश उपाध्याय की उपन्यास बखेडापुर को पढ़ते हुए..
 
सच..कुछ नहीं बदला..पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..
  बखेडापुर ने ऐसा बखेड़ा किया कि भूला बिसरा बचपन आँखो के आगे तैर गया...सेम हालात हमरे मायका के फार्महाउस के पश्चिमी चंपारण बिहार की रही ...  एक बार जाना होगा...गहन रूप से दुबारा जानने को, कि, अभी की हालत क्या है वहां की ...

बहुत कुछ याद दिला दिया आपके इस उपन्यास ने ...और प्रेरणा भी कि, शायद कुछ मैं भी लिख डालूं भविष्य में... दो दिन से इस उपन्यास को पढ़ रही थी...एक-एक शब्द को ध्यान से पढ़ा ...कई बार किसी काम से उठना हुआ, पर ना कंप्यूटर बंद हुआ, ना ये पेज...

रेनू जी का 'मैला आँचल' पढने के बाद ये दूसरा उपन्यास है आपका; पढ़ रही हूँ ... जो शुद्ध रूप से .. गाँव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया है. गाँव की अच्छाई-बुराई को दिखाता, ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है, जिसमे, 'जाति समाज' और 'वर्ग चेतना' के बीच विरोधाभास की कथा है...'मैला आंचल' जब लिखा गया था, तब, कहा जाता है कि उस समय देश की आजादी के तुरंत बाद के ब्योरे थे...छ: दशक से ऊपर हुए, पर आज भी हालत जस के तस हैं...

कुछ पन्ने, जो जहन में अंकित हो गये हैं.....

दुसरे पृष्ट पर पात्रों के नाम से याद आया .. हमारे यहाँ भी गाँव में बलिस्टर...और वकील...जो जंगल से पत्ते तोड़ कर लाता था, दोनिया और पत्तल बनाता है ....और जज साहब, जो अभी भी आठ दस भैंस रखे हैं, सानी पानी करते और दूध बेचते हैं... लोग कहते हैं कि, जैसा नाम रखिये वैसे असर होता है...तो क्या ये नाम का असर ...?

'साक्षी' एक नाम है कितना प्यारा सा और सुंदर. उपन्यास में सबके नाम बिगाड़ कर लिखे गये हैं.. साक्षी को भी साक्षिया या कुछ ऐसा ही होना चाहिए था. लेकिन उसे प्रेमपत्र लिखते हुए उसका नाम 'साक्षी' ही रहने दिया गया है.... प्रेम जो न सिखा दे ...

बालमन की प्रीत जो कभी स्मृतियों से ओझल नही होती ..कलम चूमना, दिखाना की मुझे इस कलम से कितना लगाव है...और भी बहुत सारी विह्वल करती हुयी पंक्तियाँ...कितना सलोना एहसास...

बालमन, नासमझी से ओत-प्रोत...यूँ ही होता है. जब बड़े हमें कुछ और समझा दें...और हम वही सच मान लेते हैं...पर क्या सच दबा रह पाता है ... बाहर नहीं आने दिया गया तो उपन्यास में आ गया ...

सयुंक्त बड़े परिवारों में, बड़े होते बच्चों को ख्याल में नहीं रखा जाता, तो बच्चे जल्दी बड़े हो जाते हैं ...जैसा साक्षी के साथ हुआ...और फिर राह में चल पड़ने वाले मुसाफिर का मन रुकता कहाँ है ....

एक जगह मास्साब का यह सोचना कि--भगवान कहीं, आँख का अंधा और गाँठ का भरपूर समधी भी दिए होंगे... दहेज़ का लालच इंसान से जो न करवाए...

छौंड़ी का अर्थ लड़की// मन बाग़-बाग़ हो उठा ये शब्द पढ़कर ...

आज भी हमारे बिहार के उस आदिवासी इलाके में डायनो की किस्से सुनने को मिलते हैं...पृष्ट संख्या तीन का वर्णन आँखों के सामने तैर रहा है... ऐसा देखा भी है. गाँव के सिवान पर निकाल दी गयी थी हमारे यहाँ भी एक औरत, जिसे डायन करार दे दिया गया था...

और हाँ ! मुझे लगता है उसे ही डायन कहा जाता है, जिसकी संपत्ति हड्पनी होती थी.
''डायन के साथ यह अनकही सी शर्त भी होती होगी शायद कि उसके आगे पीछे कोई न हो''...कितनी बड़ी बिडम्बना है न हमारे समाज की ,कि घर में पुरुष ना हो तो उसे कुछ भी कोई कह दे ,,गाँव निकाला दे दे ...पति मरते समय नीला पड़ गया...सांप काट दिया होगा...पर ...क्यूंकि वह एक अबला थी..जिसके ऊपर किसी पुरुष की छत्र-छाया नहीं थी तो उस इल्जाम लग गया की खून पी कर पति को खा गयी...

(मुझे याद है...नंगे, मुंह में कालिख पोत कर, बाल मुड़ाकर आगे-आगे उस औरत को जिसे डायन कहा जाता था और पीछे से गाँव के लोग ..हुडदंग मचाते ..डायन चिल्लाते उसे पूरे गाँव में घुमाते हैं... ... जबकि, मुझे याद है कि, वहां एक ऐसी ही औरत के यहाँ मैं कई बार भोजन की हूँ ...बहुत प्यार करती थी ओ मुझे...लोग उसको कहते थे डायन, और कभी मुझे देख लिया उनके साथ, तो पापा से भी कह देते थे, एक बार हल्ला भी मचा था की मुखिया जी की बेटी उसके यहाँ खाती है... पर पापा ने मुझे कभी कुछ नही कहा ...कुछ सुधार होना शुरू हो गया था इन परम्पराओं का ...लेकिन, अभी भी बिहार में बहुतायत में ऐसा देखने को मिल जाता है ...)

उपन्यास में जगह-जगह जिन कवियों की पंक्तियों को इस्तेमाल किया गया है बहुत ही सुन्दर है...

पूरे उपन्यास में जीवन के बहुत से उतार चढ़ाव आये हैं, जो पाठकों को एक लय में बांधे रखते हैं व् बिन रुके पढने को मजबूर करते है, इस उपन्यास के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाये आपको...


 
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