Monday, February 17, 2020

अमरकांत की कहानियों में स्त्री विमर्श

अमरकांत जी कीअधिकतर कहानियों में स्त्री विमर्श ही मिलेगा।

"मुझे लगता है,

यदि मध्य और निम्न मध्य वर्ग की पारिवारिक -सामाजिक विसंगतियों

और स्त्रियों के जीवन की #मूक_आह..

चेहरे पर दिखती मुस्कानों-आश्वस्तियो के नेपथ्य में छलछलाती #कराह

और मीठे खाकर भी ...मुंह मे चुभलाता #कसैला_कड़वा_स्वाद...

हर उत्साही पल से रिसता हुआ स्थाई भाव की नाईं,घर जमाये बैठे #अवसाद की विडम्बना को अमरकांत शिद्दत से अनुभूत नही कर पाये होते

तो उनका कहानीकार बनना ही सम्भव न हो पाया होता!

स्वाभाविक है, उनकी कहानियों की नाभिकीयता इन्ही के आस पास सांद्रित है। जितने भी नामचीन रचनाकार हुए ,स्त्री को आगे रखकर ही आगे बढ़ पाये। जिसने स्त्री को जितना बूझा, पाठकों ने उस रचनाकार को उतना ही बड़ा और सच्चा रचनाकार समझा-माना! रचना पद्य में रची गयी हो...या गद्य में!

कालिदास का मेघदूत हो...

शेक्सपियर का ओथेलो हो..ट्वेल्थ नाईट हो...शरत के उपन्यास तो स्त्रियों की कहानी से बाहर कुछ है भी नही..

दिनकर की उर्वशी या जयशंकर की कामायनी या तितली...नागार्जुन की रतिनाथ की चाची..पारो ...राजकमल चौधरी की 'मरी हुई मछली' हो या रेणु की कहानी 'तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम' या फिर राजेन्द्र सिंह बेदी की "एक चादर मैली सी"।

संदर्भ अमरकांत जी हैं तो मैं कहना चाहूंगी कि अमरकांत ने स्त्रियों को अपनी कहानियों में नही डाला, स्त्रियों की अनकही व्यथा की चट्टानों ने..अनसुलझी लोक विडम्बनाओं की उद्दाम लहरें  अमरकांत को धकेलकर कहानियों में ले आई।


अमरकांत जी का एक बहुत ही प्रख्यात उपन्यास है'सुन्नर पांडे की पतोह' यह उपन्यास पति द्वारा परित्यक्त राजलक्षी नाम की उस स्त्री की कहानी है जो न केवल नर भेड़ियों से भरे समाज मे अपनी अस्मत बचाके रखती है बल्कि कुछ लोगों के लिए प्रेरणा की श्रोत भी है।एक स्त्री की इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि विवाह के बाद अक्सर उसकी निजता छीन ली जाती है और उसे एक नया जामा पहना दिया जाता है,फलाने की पतोह,फलाने की मेहरारू और फलाने की माई।राजलक्ष्मी के साथ भी यही हुआ,ससुराल आते ही उसका नामकरण हो गया'सुन्नर पांडे की पतोहू' !

सुन्नर पांडे की पतोहू का पति झूलन पांडे एक दिन उसे छोड़कर कहीं चला जाता है और फिर लौट कर कभी नही आता है। राजलक्ष्मी पति की निशानी सिंदूर के साथ अंतहीन इंतज़ार करती है,लेकिन एक रात जब अपने सास ससुर की बातें सुनती है तो पांवों तले जमीं खिसक गई और वह गाँव,घर,देवता पित्तर,नदी पोखर,पंक्षियों को प्रणाम कर अनजानी राह पर चल पड़ती है।

जिस समाज मे स्त्री अपने घर पर ही सुरक्षित नही वह समाज मे क्या सुरक्षित रहेगी? फिर भी घर से निकल समाज के हर भेड़ियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि समाज के स्त्रियों की नज़र में उनकी प्रेरणाश्रोत बनती है।


अमरकांत जी की एक और उपन्यास है 'काले उजले दिन'

इस उपन्यास के पात्र अभिशापों से ग्रस्त हैं। इस उपन्यास में भी आज के समाज व्यवस्था के परिवर्तन के साथ नारी की स्वतंत्रता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है।इस उपन्यास में भी मुख्य पात्र में एक स्त्री ही है जिसका नाम रजनी है जिसका त्याग उसके जीवन का सुख -दुःख ममता और प्रेम भावना आंसुओं से ही भींगी है।

एक और लघु उपन्यास है 'सुरंग' जो नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है।इसकी पात्र बच्ची देवी शिक्षा ग्रहण करते हुये आस-पास की स्त्रियों की मदद से सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों की लड़ाई लड़ती है।


अमरकांत जी का एक और उपन्यास है 'ग्रामसेविका'।

जिसकी मुख्य पात्र दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते 'ग्रामसेविका' की नौकरी करती है। पर उसके इस कदम को गांव की स्त्रियां आशंका की दृष्टि से देखती है। उसके ऊपर व्यंग्य बाण चलाती है। दमयंती के बारे में औरतें कहती है कि---बाबा रे किस तरह छलक कर चलती है।लाज हया धोकर पी गई है। मर्दों के साथ किस तरह मटक-मटक कर बात करती है।सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन।

धर्म नाशने आई है।

गांव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते हैं पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि 'स्त्री के दिल में कामना स्वयं नही जगती...बल्कि जगाई जाती है'। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है।जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है।

अमरकांत जी मध्यवर्गीय समाज के चारित्रिक व व्यवहारिक दोगलेपन को दिखाते हुये स्त्री के प्रति उसके दृष्टिकोण को भी व्यक्त करते हैं।'दमयंती' जिसे दहेज रूपी दानव द्वारा ठुकराया जाता है।दहेज लोलुपों से वह बदला लेना चाहती है।अपने साहस संघर्ष द्वारा वह ग्रामसेविका का पद पाती है। वह ग्रामीण समाज के रूढ़िवादी संस्कारों और अंधविश्वासों की गिरफ्त से छटपटाते हुए को बदलना चाहती है। अपनी अज्ञानता के कारण गरीब लोग जहाँ धर्म के ठेकेदारों द्वारा आक्रांत थे,वहीं जोंक की तरह चिपके सूदखोरों के जुल्मों से उत्पीड़ित भी थे। इन्ही सब सामाजिक व्यवस्था को बदलने की चाहत लिये दमयंती जुटी रहती है कि अचानक उसके जीवन मे हरिचरण प्रवेश करता है,जिसके कारण उसके जीवन में उथल-पुथल मचता है और जीवन की दिशा ही बदल जाती है।


अमरकांत जी की कहानियों का दायरा निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आस-पास केंद्रित मिलेगा।इनकी कथासाहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,उनका शोषण,स्त्री पुरुष सम्बन्धों का बिखराव और पवित्र सम्बन्धों की आड़ में शारीरिक शोषण जैसी बातें देखा जा सकता है।

उनकी कहानी 'पलाश के फूल' में अजोरिया नामक स्त्री के साथ गांव के ही रायसाहब शोषण करते हुये दिखते हैं ।कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, 'स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है। रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखैल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महसूस होने लगता है।--- तो 'महुआ' कहानी के अनिलेश का मानना था कि 'भवसागर में स्त्रियां मछलियाँ हैं और वह मछुआ' । उसके हिसाब से जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है।

एक और कहानी 'मुक्ति'में मुख्य पात्र मोहन अपनी पत्नी को छोड़कर मधु नाम की स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाये रखता है।

एक और कहानी 'दोपहर का भोजन’ में भी एक अलग प्रकार की स्त्री का चरित्र अमरकांत सामने लाते हैं । यह कहानी निर्मम तटस्थता के साथ एक परिवार के माध्यम से समूचे निम्न-वर्ग के पीड़क अभावों को अंकित करती है । अभावग्रस्त जीवन पर एक पीड़ादायी व्यंग्य है।

कहानी को सीधे-सपाट ढंग से कहने के सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी का यह कथन उल्लेखनीय है—“ दोपहर का भोजन जैसी कहानियाँ अमरकांत की कहानियों में एक खास स्थान रखती हैं । ऐसी कहानियों के लिए अमरकांत को बुनावट की आवश्यकता नहीं होती है जो मार्मिक बनाए जाने के लिए काम में लाए जाते हैं।ऐसी कहानियाँ प्रेमचंद ने बड़ी सफलता से लिखी है। प्रेमचंद के बाद साधारण जीवन के कथ्य पर ऐसा सहज अधिकार अमरकांत में ही मिलता है।


दिन रविवार 27 नवम्बर 1988 को जनसत्ता में अमरकांत जी का एक साक्षात्कार छपा था,साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था,इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया कि जीवन के कई घटनाओं को देखने सुनने से ही रचना को लिखने की प्रेरणा हुई और उन्होंने यह भी बताया कि एक कहानी लिखी थी 'सुहागिन' नाम से। छपी नही...बल्कि उन्होंने छपने के लिए कहीं भेजी ही नही। उन्होंने बताया कि उसमे भी एक अशिक्षित स्त्री ही है जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है,उस संवेदनशील... संघर्षशील स्त्री ने बिना सहारे के अपनी ज़िंदगी काट देती है।उसे उपयुक्त परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।

यह पूछे जाने पर कि उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोहू' के पीछे उनकी मानवीय सामाजिक व राजनीतिक चिंता क्या है?

तो अमरकांत जी कहते हैं समाज मे स्त्रियां जो विडम्बनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं उसी से सम्बंधित रचना है।हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नही मिल पाती,जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं के बीच काफ़ी लम्बी चौड़ी खाई नजऱ आती है इसलिए वह समाज मे कारगर भूमिका अदा नही कर पाती।

अमरकांत जी के उपरोक्त वक्तब्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परिचित थे। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी मान-मर्यादा,प्रतिष्ठा और स्त्रीत्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्रियों की जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत जी ने अपनी कहानियों उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती
https://nationalfrontier.in/vasundhra-pandey-artical/



वसुन्धरा पाण्डेय

इलाहाबाद


vasundhara.pandey@gmail.com

Tuesday, January 21, 2020

अथ श्री प्रयाग कथा उपन्यास की समीक्षा




"हर शहर का अपना एक रंग और मिज़ाज होता है।शहर के आस्वादन के तरीके भी अलग-अलग होते हैं।प्रयाग(इलाहाबाद नही! लेखक ने इसे सायास प्रयाग कहा है) अपनी तमाम ऐतिहासिकता के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते नौजवानों के लिए एक यातिप्राप्त शहर है।लेखक ने मुख्यतः शहर के इस चरित्र को ही किताब का प्रतिपाद्य बनाया है(भूमिका से)"


स्मृतियो से प्रेम ही नही उपजता,दीवानगी भी होती है"और ऐसी दीवानगी कि कभी-कभी महाकाव्य भी रचवा दे...!
इन्ही स्मृतियों में उलझे हुए साहित्यकार श्री ललित मोहन रयाल जी का हाल ही में संस्मरणात्मक शैली में एक अद्भुत उपन्यास आया है जिसका नाम है "अथ श्री प्रयाग कथा" !
इलाहाबाद (अभी परिवर्तित नाम प्रयागराज )के बारे में एक बात यह प्रसिद्ध है कि ये शहर बाहर से आये हुए लोगों को भी बहुत जल्द अपना लेता है...और इस शहर से गुजर कर ज्यादातर लोग साहित्यकार बन ही जाते हैं। वैसे भी ये शहर साहित्यकारों का गढ़ है,इस शहर ने एक से बढ़कर एक महान साहित्यकार हमारे देश को दिए हैं।
इस उपन्यास में नगर,गांव-गिरांव से खर्चा खोराकी के साथ पहुँचे,प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे उन तमाम नौजवानों की संघर्ष की कहानी है जिसे ललित रयाल जी चुटीले अंदाज में इस उपन्यास में उकेरे हैं।
इलाहाबादी लोक जीवन को गहराई से जानने समझने के लिए यह उपन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस उपन्यास में आपने युवा-मन के भीतर का सपना सम्वेदना को बड़ी कुशलता के साथ संयोजित किया है।डेढ़ से दो दशक पहले ललित जी स्वयं इलाहाबाद में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कीये हैं।उनकी इस संस्मरणात्मक उपन्यास में दर्ज है--नाकाम होते युवाओं पर उछाले हुए शब्दों की चुभन,खाली कोरी फ़ीकी---आंखों की चाहत और जिद्दी किरायेदारनुमा ख़ामोशी जिसे सहन करते हुए उन्हें और आगे...और आगे तैयारी में जुटे रहना है...। इस संस्मरणात्मक उपन्यास में डेढ़ से दो दशक पुरानी बहुआयामी गाथा है जिसमे हर दिन रयाल जी की उपस्थिति है । यहां आए हर नौजवान को यही लगता है कि बस दो से तीन सालों में तो आई.ए.एस निकाल ही लेंगे,आखिर है क्या सिलेबस में?
जूनून शुरुआती दिनों देखते बनता है,दो चार बार प्री देने के बाद समझ आता है कि इस समुद्र का थाह पकड़ पाना कितना मुश्किल है ,जीवन आवेगहीन सुस्त गति से लुढ़कने लगता है ..मंथर गति से चलते हुए यह प्रक्रिया अकसर यहाँ लगने वाला अर्धकुम्भ मैले जैसे हो जाती है।

इसी पुस्तक से ये पैराग्राफ़ देखिये---

"लेटे हुए हनुमानजी का मंदिर।यह स्थान इलाहाबाद का एक दर्शनीय स्थान है।प्रायः श्रद्धा-भय का मिश्रण लिए एस्पिरेन्ट्स की भींड़ लगी रहती है।कुछ सफ़ल होकर लड्ड़ू चढ़ाने गये हैं।अगले चरण का कौल माँगने भी।'इस बेर' ध्यान रखा है प्रभु! यों ही आशीर्वाद बनाये रखना।'
कुछ तो नॉकआउट होकर, नोक-झोंक करने गए हैं। अपने आराध्य देव से रिसाये हुए हैं।"कईसन-कईसन लोगन के नाव पार लगईले बाड़न। एक बार तनी इहाँ देख लैं, का बिगड़ जाईल तोहार।अब बर्दाश्त के बाहर हो गइल बा।अब नईखे सहत जात। अब जौन हो गईल तौन हो गईल, आगे देख ली हा ।" वे आकस्मिक पतन से आहत हैं और व्यथित भी। बाहर सीनियर मिल गये हैं।
उन्होंने ढांढस बढाते हुए कहा, " एतना में चोक ले लिए।(विग्रह की ओर इशारा करते हुए) समनवा देखे हो।कैसे कैसे लेट गए,इस प्रयागभूमि पर। अभी से करेजा छोटा मत करो। 'महामना' भारतीयता की साक्षात मूर्ति रहे। पूरे देश मे डंका पीटे रहे। मूर्तिया चौचक,देश भर के चौराहों पर। गले मे दुशाला,सिर पर पगड़ी,हाथ मे छड़ी,चेहरे पर कड़कता अनुशासन,लेकिन हिन्दू हॉस्टलवा के चौराहे पर मूर्तिया देखे हो कभी। न हाथ मे छड़ी, न चेहरे पर वो दृढ़ता । हाथ जोड़े खड़े हैं, 'कमिशनवा' की ओर। यह उलाहना अकारण नहीं, सोद्देश्य रहता है।
'पथ की बाधाओं से विचलित नही होना चाहिए। जीवन मे बहुत सी परस्पर असम्बद्ध घटनाएँ घट जाती हैं।हमें देखो। हमारे साथ कब से हो रही है। हम खतरे उठाकर बने हुए हैं कि नही। बिल्कुल डटे हुए हैं।डटकर मुक़ाबला कर रहे हैं।'
श्रद्धेय सही तो कह रहे थे। 'मोछभदरा' हो गए हैं। पुराना बाना त्याग दिए हैं। 'शार्ट शर्ट', स्किन 'टाईट' अंगीकार कर लिए हैं,लेकिन उनका अटल विश्वास बना हुआ है कि "कभी तो होइबे करेगा।" फाइट में बने रहने के लिए केतना त्याग और समर्पण किये हैं। इस विस्तृत और मार्मिक आख्यान से ,उनकी कोमल सम्वेदनाएँ पुलकित हैं। इसलिए वे मंत्र-मुग्ध होकर सुन रहे हैं। यह तर्क प्रणाली आपको कभी नही डूबने देगी। कभी न कभी,कहीं न कहीं किसी परीक्षा में सफल होंगे। प्रलय - काल तक यह उम्मीद कायम रहती है। शक्ति-सन्तुलन 'मेंटेन' रहता है। यह महान आशावाद कईयों को जीने का रास्ता दिखा जाता है।
"लिए सपने निगाहों में, चला हूँ तेरी राहों में...मेरे हाथों की गरमी से, पिघल जायेंगी जंजीरें....ज़िन्दगी... आ रहा हूँ... मैं।"
अगली सुबह, 'मशाल' पिक्चरवा का गीत,रेडियो पर बज रहा था। साक्षात वह दृश्य कौंध जाता है,अनिल कपूर के ओज-तेज से दीप्त, दर्प भरे चेहरे का। यह गीत हुँकार भरने का संदेश देकर जाता है। जितनी बार सुनो,वही रवानी,वही एनर्जी।
'रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के...काटों पे... चलके...मिलेंगे साए... बहार के...करती है मंजिल तुझको इशारे...यों ही चलाचल दिल के सहारे...।
यों लगता था मानो गीतकार ने ये गीत ,हमारे साथ घटे अघटित को समझ कर लिखे हैं। हमरी सिचुएशन सोच समझ कर लिखे हैं। हमें ही प्रेरित करने के लिए लिखे हैं। द्विगुणित उत्साह,त्रिगुणित संकल्प के साथ मरणशील संकल्प फिर से जाग उठता है। अपनी क्षमता पर कल जो अविश्वास हुआ था,वह सहसा विलीन हो चला है।
ये गीत,प्रायः त्रिवेणी कार्यक्रम में प्रसारित हुआ करते थे,जो निष्फल परिणाम के अवसाद से उबारने में शर्तिया कारगर होते थे। ये गीत कैंडिडेट को जबरदस्त रूप से बाहर फेंकने में समर्थ हुआ करते थे।एक घण्टे के अंदर-अंदर प्रायः मृत-संजीवनी का काम कर जाते थे। शल्यकर्णी औषध की तरह,विदीर्ण हृदय के घावों को भर जाते थे।इस बार झंडा गाड़ के रहेंगे। "फिर से झमाझम अध्ययन शुरू।"(इसी पुस्तक से)

यह पुस्तक 30 खण्डों में है,औपन्यासिक गठन के चलते यह और रोचक बन पड़ी है। लेखक अपने पाठकों को साथ लेकर घूमते हुये मित्रों,स्थानों,और परिस्थितियों से परिचित करवाते चलते हैं...असल मे यह उपन्यास न होकर लेखक की विचार श्रृंखला है।इस उपन्यास में ख़ुशरोबाग से लेकर संगम घाट,सीविल लाइन्स,दारागंज ,अलोपी बाग इत्यादि जगहों का विस्तृत वर्णन व मई-जून की भीषण गरमी, आग उगलते सूर्यदेव। गमछे से पसीना पोछती युवा-पीढ़ी। इन्हे किराए पर मिले कमरे अकसर ऊपरी मंजिल के होते जो साक्षात भट्टी-ब्वॉयलर का मजा दे जाता है। इन सब वाकयों को ललित रयाल जी ने बखूबी उकेरा है।
इलाहाबाद एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर है जिसे लेखक ने इहलौकिक और परलौकिक दोनों स्वरूपों में उपन्यास में विद्यमान किया है। ऐसी पुस्तक सरसरी नजऱ से पढ़ी जाने पर समझ नही आती,यह परम्परागत उपन्यास जैसी है जो एक साथ कई धरातलों पर लिखी गई है। सामान्य सी घटना रोजमर्रा की घटना को लेखक ने जिस तरह से इस उपन्यास में उकेरा है कि पाठक रम ही जाये। इलाहाबादी भाषा को बेहद सरल तरीके से व्यक्त करने में माहिर हैं। उपन्यास को जब मन हो, जहाँ से मन हो किसी भी पृष्ठ से पढ़ना शुरू कर दीजिए आपको लगेगा कि आपके द्वारा जीये हुए यथार्थ को लेखक ने अपने कलम से व्यक्त कर दी है।
इनकी पुस्तक के पात्र आज भी इलाहाबाद में घूम रहे हैं अनन्य शरीरों द्वारा। आपकी इस पुस्तक को पढ़ना मतलब सीविल सर्विस की तैयारी करते हर युवा की आत्मा को पढ़ना है। यथार्थ का ऐसा विरल संयोग अत्यंत दुर्लभ है। नगर में गांव से आये निश्छल युवाओं के जीवन के रंग को पढ़ना उन्हें समझना आसान कहाँ होता?
एक अनूठी लय और रागात्मकता के साथ आपका संस्मरणात्मक उपन्यास हमारी रगो से होते हुए अंतःकरण में प्रवाहित होने लगी जैसे हमसे अपना सुख-दुख साझा कर रहें हो।सत्यता को कितना क़रीब से जीया है लेखक ने।सीविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे युवकों के कश्मकश का जीवंत चित्रण है, एक ख़ास तरह की ताजग़ी का सन्निवेश है इसमें।शब्द,भाव,भाषा,चरित्र,और स्थान का अद्भुत वर्णन है।यह उपन्यास हमारी अपनी भाषा मे हमसे बातें करती हुई चलती है...बड़ी ही मारक उपन्यास,कितनी ही दुखती रगो को छेड़ जाएगी...।

एकबानगी देखिये---ये पंक्तियां पुस्तक में समर्पण लिखा गया है---
["प्रयाग के उन समस्त,नाम अनाम मित्रों को,जिन्होंने इस तरह के जीवन को अंशतः या पूर्णतः जिया अथवा जी रहे हैं..."]
इन्ही के इन पंक्तियों के साथ लेखक को अनंत शुभकामनाएं देते हुए---
वसुन्धरा पाण्डेय
8756445589
इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश

उपन्यास--अथश्री प्रयाग कथा
मूल्य--200 रुपये
प्रकाशक--प्रभात पेपरबैक्स
4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली
फोन नम्बर-23289777
लेखक--श्री ललित मोहन रयाल
जीविकोपार्जन--लोकसेवा से
पूर्व प्रकाशित रचना: 'खड़कमाफी की स्मृतियों से।'