Tuesday, January 21, 2020

अथ श्री प्रयाग कथा उपन्यास की समीक्षा




"हर शहर का अपना एक रंग और मिज़ाज होता है।शहर के आस्वादन के तरीके भी अलग-अलग होते हैं।प्रयाग(इलाहाबाद नही! लेखक ने इसे सायास प्रयाग कहा है) अपनी तमाम ऐतिहासिकता के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते नौजवानों के लिए एक यातिप्राप्त शहर है।लेखक ने मुख्यतः शहर के इस चरित्र को ही किताब का प्रतिपाद्य बनाया है(भूमिका से)"


स्मृतियो से प्रेम ही नही उपजता,दीवानगी भी होती है"और ऐसी दीवानगी कि कभी-कभी महाकाव्य भी रचवा दे...!
इन्ही स्मृतियों में उलझे हुए साहित्यकार श्री ललित मोहन रयाल जी का हाल ही में संस्मरणात्मक शैली में एक अद्भुत उपन्यास आया है जिसका नाम है "अथ श्री प्रयाग कथा" !
इलाहाबाद (अभी परिवर्तित नाम प्रयागराज )के बारे में एक बात यह प्रसिद्ध है कि ये शहर बाहर से आये हुए लोगों को भी बहुत जल्द अपना लेता है...और इस शहर से गुजर कर ज्यादातर लोग साहित्यकार बन ही जाते हैं। वैसे भी ये शहर साहित्यकारों का गढ़ है,इस शहर ने एक से बढ़कर एक महान साहित्यकार हमारे देश को दिए हैं।
इस उपन्यास में नगर,गांव-गिरांव से खर्चा खोराकी के साथ पहुँचे,प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे उन तमाम नौजवानों की संघर्ष की कहानी है जिसे ललित रयाल जी चुटीले अंदाज में इस उपन्यास में उकेरे हैं।
इलाहाबादी लोक जीवन को गहराई से जानने समझने के लिए यह उपन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस उपन्यास में आपने युवा-मन के भीतर का सपना सम्वेदना को बड़ी कुशलता के साथ संयोजित किया है।डेढ़ से दो दशक पहले ललित जी स्वयं इलाहाबाद में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कीये हैं।उनकी इस संस्मरणात्मक उपन्यास में दर्ज है--नाकाम होते युवाओं पर उछाले हुए शब्दों की चुभन,खाली कोरी फ़ीकी---आंखों की चाहत और जिद्दी किरायेदारनुमा ख़ामोशी जिसे सहन करते हुए उन्हें और आगे...और आगे तैयारी में जुटे रहना है...। इस संस्मरणात्मक उपन्यास में डेढ़ से दो दशक पुरानी बहुआयामी गाथा है जिसमे हर दिन रयाल जी की उपस्थिति है । यहां आए हर नौजवान को यही लगता है कि बस दो से तीन सालों में तो आई.ए.एस निकाल ही लेंगे,आखिर है क्या सिलेबस में?
जूनून शुरुआती दिनों देखते बनता है,दो चार बार प्री देने के बाद समझ आता है कि इस समुद्र का थाह पकड़ पाना कितना मुश्किल है ,जीवन आवेगहीन सुस्त गति से लुढ़कने लगता है ..मंथर गति से चलते हुए यह प्रक्रिया अकसर यहाँ लगने वाला अर्धकुम्भ मैले जैसे हो जाती है।

इसी पुस्तक से ये पैराग्राफ़ देखिये---

"लेटे हुए हनुमानजी का मंदिर।यह स्थान इलाहाबाद का एक दर्शनीय स्थान है।प्रायः श्रद्धा-भय का मिश्रण लिए एस्पिरेन्ट्स की भींड़ लगी रहती है।कुछ सफ़ल होकर लड्ड़ू चढ़ाने गये हैं।अगले चरण का कौल माँगने भी।'इस बेर' ध्यान रखा है प्रभु! यों ही आशीर्वाद बनाये रखना।'
कुछ तो नॉकआउट होकर, नोक-झोंक करने गए हैं। अपने आराध्य देव से रिसाये हुए हैं।"कईसन-कईसन लोगन के नाव पार लगईले बाड़न। एक बार तनी इहाँ देख लैं, का बिगड़ जाईल तोहार।अब बर्दाश्त के बाहर हो गइल बा।अब नईखे सहत जात। अब जौन हो गईल तौन हो गईल, आगे देख ली हा ।" वे आकस्मिक पतन से आहत हैं और व्यथित भी। बाहर सीनियर मिल गये हैं।
उन्होंने ढांढस बढाते हुए कहा, " एतना में चोक ले लिए।(विग्रह की ओर इशारा करते हुए) समनवा देखे हो।कैसे कैसे लेट गए,इस प्रयागभूमि पर। अभी से करेजा छोटा मत करो। 'महामना' भारतीयता की साक्षात मूर्ति रहे। पूरे देश मे डंका पीटे रहे। मूर्तिया चौचक,देश भर के चौराहों पर। गले मे दुशाला,सिर पर पगड़ी,हाथ मे छड़ी,चेहरे पर कड़कता अनुशासन,लेकिन हिन्दू हॉस्टलवा के चौराहे पर मूर्तिया देखे हो कभी। न हाथ मे छड़ी, न चेहरे पर वो दृढ़ता । हाथ जोड़े खड़े हैं, 'कमिशनवा' की ओर। यह उलाहना अकारण नहीं, सोद्देश्य रहता है।
'पथ की बाधाओं से विचलित नही होना चाहिए। जीवन मे बहुत सी परस्पर असम्बद्ध घटनाएँ घट जाती हैं।हमें देखो। हमारे साथ कब से हो रही है। हम खतरे उठाकर बने हुए हैं कि नही। बिल्कुल डटे हुए हैं।डटकर मुक़ाबला कर रहे हैं।'
श्रद्धेय सही तो कह रहे थे। 'मोछभदरा' हो गए हैं। पुराना बाना त्याग दिए हैं। 'शार्ट शर्ट', स्किन 'टाईट' अंगीकार कर लिए हैं,लेकिन उनका अटल विश्वास बना हुआ है कि "कभी तो होइबे करेगा।" फाइट में बने रहने के लिए केतना त्याग और समर्पण किये हैं। इस विस्तृत और मार्मिक आख्यान से ,उनकी कोमल सम्वेदनाएँ पुलकित हैं। इसलिए वे मंत्र-मुग्ध होकर सुन रहे हैं। यह तर्क प्रणाली आपको कभी नही डूबने देगी। कभी न कभी,कहीं न कहीं किसी परीक्षा में सफल होंगे। प्रलय - काल तक यह उम्मीद कायम रहती है। शक्ति-सन्तुलन 'मेंटेन' रहता है। यह महान आशावाद कईयों को जीने का रास्ता दिखा जाता है।
"लिए सपने निगाहों में, चला हूँ तेरी राहों में...मेरे हाथों की गरमी से, पिघल जायेंगी जंजीरें....ज़िन्दगी... आ रहा हूँ... मैं।"
अगली सुबह, 'मशाल' पिक्चरवा का गीत,रेडियो पर बज रहा था। साक्षात वह दृश्य कौंध जाता है,अनिल कपूर के ओज-तेज से दीप्त, दर्प भरे चेहरे का। यह गीत हुँकार भरने का संदेश देकर जाता है। जितनी बार सुनो,वही रवानी,वही एनर्जी।
'रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के...काटों पे... चलके...मिलेंगे साए... बहार के...करती है मंजिल तुझको इशारे...यों ही चलाचल दिल के सहारे...।
यों लगता था मानो गीतकार ने ये गीत ,हमारे साथ घटे अघटित को समझ कर लिखे हैं। हमरी सिचुएशन सोच समझ कर लिखे हैं। हमें ही प्रेरित करने के लिए लिखे हैं। द्विगुणित उत्साह,त्रिगुणित संकल्प के साथ मरणशील संकल्प फिर से जाग उठता है। अपनी क्षमता पर कल जो अविश्वास हुआ था,वह सहसा विलीन हो चला है।
ये गीत,प्रायः त्रिवेणी कार्यक्रम में प्रसारित हुआ करते थे,जो निष्फल परिणाम के अवसाद से उबारने में शर्तिया कारगर होते थे। ये गीत कैंडिडेट को जबरदस्त रूप से बाहर फेंकने में समर्थ हुआ करते थे।एक घण्टे के अंदर-अंदर प्रायः मृत-संजीवनी का काम कर जाते थे। शल्यकर्णी औषध की तरह,विदीर्ण हृदय के घावों को भर जाते थे।इस बार झंडा गाड़ के रहेंगे। "फिर से झमाझम अध्ययन शुरू।"(इसी पुस्तक से)

यह पुस्तक 30 खण्डों में है,औपन्यासिक गठन के चलते यह और रोचक बन पड़ी है। लेखक अपने पाठकों को साथ लेकर घूमते हुये मित्रों,स्थानों,और परिस्थितियों से परिचित करवाते चलते हैं...असल मे यह उपन्यास न होकर लेखक की विचार श्रृंखला है।इस उपन्यास में ख़ुशरोबाग से लेकर संगम घाट,सीविल लाइन्स,दारागंज ,अलोपी बाग इत्यादि जगहों का विस्तृत वर्णन व मई-जून की भीषण गरमी, आग उगलते सूर्यदेव। गमछे से पसीना पोछती युवा-पीढ़ी। इन्हे किराए पर मिले कमरे अकसर ऊपरी मंजिल के होते जो साक्षात भट्टी-ब्वॉयलर का मजा दे जाता है। इन सब वाकयों को ललित रयाल जी ने बखूबी उकेरा है।
इलाहाबाद एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर है जिसे लेखक ने इहलौकिक और परलौकिक दोनों स्वरूपों में उपन्यास में विद्यमान किया है। ऐसी पुस्तक सरसरी नजऱ से पढ़ी जाने पर समझ नही आती,यह परम्परागत उपन्यास जैसी है जो एक साथ कई धरातलों पर लिखी गई है। सामान्य सी घटना रोजमर्रा की घटना को लेखक ने जिस तरह से इस उपन्यास में उकेरा है कि पाठक रम ही जाये। इलाहाबादी भाषा को बेहद सरल तरीके से व्यक्त करने में माहिर हैं। उपन्यास को जब मन हो, जहाँ से मन हो किसी भी पृष्ठ से पढ़ना शुरू कर दीजिए आपको लगेगा कि आपके द्वारा जीये हुए यथार्थ को लेखक ने अपने कलम से व्यक्त कर दी है।
इनकी पुस्तक के पात्र आज भी इलाहाबाद में घूम रहे हैं अनन्य शरीरों द्वारा। आपकी इस पुस्तक को पढ़ना मतलब सीविल सर्विस की तैयारी करते हर युवा की आत्मा को पढ़ना है। यथार्थ का ऐसा विरल संयोग अत्यंत दुर्लभ है। नगर में गांव से आये निश्छल युवाओं के जीवन के रंग को पढ़ना उन्हें समझना आसान कहाँ होता?
एक अनूठी लय और रागात्मकता के साथ आपका संस्मरणात्मक उपन्यास हमारी रगो से होते हुए अंतःकरण में प्रवाहित होने लगी जैसे हमसे अपना सुख-दुख साझा कर रहें हो।सत्यता को कितना क़रीब से जीया है लेखक ने।सीविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे युवकों के कश्मकश का जीवंत चित्रण है, एक ख़ास तरह की ताजग़ी का सन्निवेश है इसमें।शब्द,भाव,भाषा,चरित्र,और स्थान का अद्भुत वर्णन है।यह उपन्यास हमारी अपनी भाषा मे हमसे बातें करती हुई चलती है...बड़ी ही मारक उपन्यास,कितनी ही दुखती रगो को छेड़ जाएगी...।

एकबानगी देखिये---ये पंक्तियां पुस्तक में समर्पण लिखा गया है---
["प्रयाग के उन समस्त,नाम अनाम मित्रों को,जिन्होंने इस तरह के जीवन को अंशतः या पूर्णतः जिया अथवा जी रहे हैं..."]
इन्ही के इन पंक्तियों के साथ लेखक को अनंत शुभकामनाएं देते हुए---
वसुन्धरा पाण्डेय
8756445589
इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश

उपन्यास--अथश्री प्रयाग कथा
मूल्य--200 रुपये
प्रकाशक--प्रभात पेपरबैक्स
4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली
फोन नम्बर-23289777
लेखक--श्री ललित मोहन रयाल
जीविकोपार्जन--लोकसेवा से
पूर्व प्रकाशित रचना: 'खड़कमाफी की स्मृतियों से।'