माया मृग जी की पुस्तक .. 'कात रे मन...कात' ...छोटे आकार में बड़ी
पुस्तक ....
एक नजर 'कात रे मन...कात' को...देखते हुए
ऐसे समय में जब कातना, बुनना, जीवन जीने की यह सब कलाएं, पीछे छूट चुकी हो..कितना सुखद लगता है न कवि से ये शब्द सुनना, जैसे मद्धम सुर में कहीं सितार बज रहे हों...कवि कातने की बात करे तो बहुत कुछ सोचने जैसा हो जाता है ...गांधी याद आने लगते हैं और उनके साथ जुड़ा कितना कुछ ...आपके इस संकलन में कितना कुछ है.. जीवन खट्टे-मीठे अनुभव जो कभी, आँखे भर लाते है, कभी शहद सी खुशियों का एहसास दिलाते हैं. प्यार और उसकी चुभन और उसकी टूटन से ओत प्रोत...
"टूटकर निभाई मर्यादाएं भी... मित्रताएं भी टूटने का वक्त है, जाने क्या टूट जाए..."
सब अस्थिर है. सब टूटता है फिर फिर जुड़ता है, बस, टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया ही स्थायी है
"रात की सियाही को छुआ तुमने तो, सबेरा हो गया.. तुम्हारी छुअन सियाही में घुली सी क्यूं है..."
वाह ! कहे बिन न रह सकी !
"तुम्हारी दी अंगूठी का हीरा... जब चमकता है तब बहुत चमकता है.. काटता है तो ... बहुत काटता है..." ...प्यार के यह दोनों रूप आपने दिखला दिए..
सोलहवें पृष्ठ पर है..''हार कर देखा कभी...? '' बरवस मेरे मुंह में अपनी ही एक पंक्ति अपने को दुहराने लगी ... "कई बार... जब-जब हारी और जीने, और हारने की चाह जगी ''
सत्रहवें पृष्ठ पर ' "वह हँसा ...खुली हँसी...(वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)
वह हँसी...खुली हंसी...(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने) "
भेद-भाव का यह कितना कटु सत्य है हमारे समय का. एक भावुक हृदय कवि ही स्त्री मन का 'मनन और गुनन' कर सकता है !
"बंद कमरे मैं गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री..."
पढ़कर..सोचने को मजबूर हो गयी...सब कुछ तो सच में ऐसा ही है..?
'कितना हँसते थे हम'' ये पंक्ति पढ़कर अतीत में जाए बगैर नही रह सकी ...कितना हँसते थे हम और आज बस याद करते हैं उस बीते अतीत को !
"ये हमने क्या किया ... लक्ष्मी को बुलाने के लिए हमने उल्लुओं को पिंजरें में डालना शुरू कर दिया... डालना तो उनको था जिन्होंने हमें उल्लू बनाया.. (तब आतीं लक्ष्मी तो...अपार)"
यह बात कुछ समझ में आई कुछ नहीं...
लेकिन माया जी क्या कहने हैं आपके ...छोटी छोटी रचनाएं समुन्द्र सी गहराई लिए हुए है, शब्दों का चयन यूँ किये हैं जो पाठकगण आसानी ग्रहण कर सके जबकि सरल और बिरल दोनो तरह के शब्द विन्यास हैं इस पुस्तक में .. बिखरना और समेटना जीवन का रंग है जहाँ हम कभी खुद को हारते हैं तो जीतते भी हैं ,ये रंग आता जाता रहता है,
"'ढूँढना जारी रहेगा... मेरा भी... तुम्हारा भी... तुम विकल्प ढूंढो... मुझे वह ढूँढने दो... जो सब विकल्प ख़त्म होने के बाद शुरू होता है..."
---वाह अद्भुत पंक्तियाँ ..कवि को ही पुल बनाने पड़ते हैं!
"कात रे मन ...कात...कातेगा तो बुनेगा...बुनेगा तो ओढेगा...सब ओढ़ कर जीते हैं, तू भी ओढ़ कर जी ..." निशब्द हूँ, आदरणीय माया जी, और आभारी भी कि मुझे इस पुस्तक को पढने योग्य आपने मुझे समझा बहुत-बहुत मंगल कामनाओं सहित ..
एक नजर 'कात रे मन...कात' को...देखते हुए
''उन्हें... जो काते हुए को बुनेंगे ''...वाह !
ऐसे समय में जब कातना, बुनना, जीवन जीने की यह सब कलाएं, पीछे छूट चुकी हो..कितना सुखद लगता है न कवि से ये शब्द सुनना, जैसे मद्धम सुर में कहीं सितार बज रहे हों...कवि कातने की बात करे तो बहुत कुछ सोचने जैसा हो जाता है ...गांधी याद आने लगते हैं और उनके साथ जुड़ा कितना कुछ ...आपके इस संकलन में कितना कुछ है.. जीवन खट्टे-मीठे अनुभव जो कभी, आँखे भर लाते है, कभी शहद सी खुशियों का एहसास दिलाते हैं. प्यार और उसकी चुभन और उसकी टूटन से ओत प्रोत...
"टूटकर निभाई मर्यादाएं भी... मित्रताएं भी टूटने का वक्त है, जाने क्या टूट जाए..."
सब अस्थिर है. सब टूटता है फिर फिर जुड़ता है, बस, टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया ही स्थायी है
"रात की सियाही को छुआ तुमने तो, सबेरा हो गया.. तुम्हारी छुअन सियाही में घुली सी क्यूं है..."
वाह ! कहे बिन न रह सकी !
"तुम्हारी दी अंगूठी का हीरा... जब चमकता है तब बहुत चमकता है.. काटता है तो ... बहुत काटता है..." ...प्यार के यह दोनों रूप आपने दिखला दिए..
सोलहवें पृष्ठ पर है..''हार कर देखा कभी...? '' बरवस मेरे मुंह में अपनी ही एक पंक्ति अपने को दुहराने लगी ... "कई बार... जब-जब हारी और जीने, और हारने की चाह जगी ''
सत्रहवें पृष्ठ पर ' "वह हँसा ...खुली हँसी...(वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)
वह हँसी...खुली हंसी...(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने) "
भेद-भाव का यह कितना कटु सत्य है हमारे समय का. एक भावुक हृदय कवि ही स्त्री मन का 'मनन और गुनन' कर सकता है !
"बंद कमरे मैं गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री..."
पढ़कर..सोचने को मजबूर हो गयी...सब कुछ तो सच में ऐसा ही है..?
'कितना हँसते थे हम'' ये पंक्ति पढ़कर अतीत में जाए बगैर नही रह सकी ...कितना हँसते थे हम और आज बस याद करते हैं उस बीते अतीत को !
"ये हमने क्या किया ... लक्ष्मी को बुलाने के लिए हमने उल्लुओं को पिंजरें में डालना शुरू कर दिया... डालना तो उनको था जिन्होंने हमें उल्लू बनाया.. (तब आतीं लक्ष्मी तो...अपार)"
यह बात कुछ समझ में आई कुछ नहीं...
लेकिन माया जी क्या कहने हैं आपके ...छोटी छोटी रचनाएं समुन्द्र सी गहराई लिए हुए है, शब्दों का चयन यूँ किये हैं जो पाठकगण आसानी ग्रहण कर सके जबकि सरल और बिरल दोनो तरह के शब्द विन्यास हैं इस पुस्तक में .. बिखरना और समेटना जीवन का रंग है जहाँ हम कभी खुद को हारते हैं तो जीतते भी हैं ,ये रंग आता जाता रहता है,
"'ढूँढना जारी रहेगा... मेरा भी... तुम्हारा भी... तुम विकल्प ढूंढो... मुझे वह ढूँढने दो... जो सब विकल्प ख़त्म होने के बाद शुरू होता है..."
---वाह अद्भुत पंक्तियाँ ..कवि को ही पुल बनाने पड़ते हैं!
"कात रे मन ...कात...कातेगा तो बुनेगा...बुनेगा तो ओढेगा...सब ओढ़ कर जीते हैं, तू भी ओढ़ कर जी ..." निशब्द हूँ, आदरणीय माया जी, और आभारी भी कि मुझे इस पुस्तक को पढने योग्य आपने मुझे समझा बहुत-बहुत मंगल कामनाओं सहित ..
सम्पर्क-
बोधि प्रकाशन,77करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया
बाईस गोदाम ,जयपुर -३०२००६
मोबाईल नंबर-09829018087
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