Thursday, January 2, 2014

मेरी समीक्षा ''बांसगांव की मुनमुन'' नवभारत टाइम्स ब्लॉग पर..

श्याम जुनेजा की टिप्पड़ी ,मेरी एक कविता पर..

 कविता वसुंधरा पाण्डेय 



बावरा मन  
जब भी चाहे, चाहे तेरा साथ
वक्त की रेत
मुट्ठी से फिसली जाती है

बदले में,
मिलते तो सही   
मौसम के जैसे ही कभी

 “…मै अपनी दुनिया में
पर तेरी दुनिया की बड़ी याद आती है

क्या कहूँ
मुझे भी तो तुमसे यही कहना था...!



 टिप्पड़ी आ0 श्याम जुनेजा की --

..."बावरा मन ....मौसम की तरह"
ऐसे मन को तो हम बावरा न कह पाएं कभी भी...यही तो सबसे समझदार मन है जो जानता है... वक्त की रेत=? ...मुटठी से फिसली जा रही है ... रेत की जगह कुछ और होना चाहिए था; आखिर, रेत जीवन का संकेत दे रही है.. सुंदर सा; हीरे, मोती, मानिक कुछ भी...प्यार की कविता में, रेत, का क्या काम ? 'वक्त' के स्थान पर भी 'समय' यदि हो तो बेहतर... ...बदले में मिलते हो 'तुम' मोसम की तरह... ..किस मौसम की तरह ? आते हुए मौसम की तरह या जाते हुए मौसम की तरह ? उमस भरे या भिगो देने वाले ...निपत्ते, या फूलों भरे , या फिर ...गर्म शाल कम्बल रजाई वाले मौसम की तरह ? सबसे सुंदर कविता सबसे अधिक सवाल पैदा कर देती है ..और फूलों की कोमलता वाले सवाल पैदा करने वाली कविता...! उसका तो कोई तोड़ ही नहीं होता ! वधाई !
टिपण्णी लिखते लिखते मन आ गई बात कि इस शानदार कविता के लिए जो बात कही जाए, वह रूटीन से थोडा निकल कर कही जा सके ...भूल-चूक के लिए माफ़ी के साथ ..!

अभी भी पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..


आंचलिक पृष्ठभूमि पर हरेप्रकाश उपाध्याय की उपन्यास बखेडापुर को पढ़ते हुए..
 
सच..कुछ नहीं बदला..पूरा देश जूझ रहा है इसी बदहाली से..
  बखेडापुर ने ऐसा बखेड़ा किया कि भूला बिसरा बचपन आँखो के आगे तैर गया...सेम हालात हमरे मायका के फार्महाउस के पश्चिमी चंपारण बिहार की रही ...  एक बार जाना होगा...गहन रूप से दुबारा जानने को, कि, अभी की हालत क्या है वहां की ...

बहुत कुछ याद दिला दिया आपके इस उपन्यास ने ...और प्रेरणा भी कि, शायद कुछ मैं भी लिख डालूं भविष्य में... दो दिन से इस उपन्यास को पढ़ रही थी...एक-एक शब्द को ध्यान से पढ़ा ...कई बार किसी काम से उठना हुआ, पर ना कंप्यूटर बंद हुआ, ना ये पेज...

रेनू जी का 'मैला आँचल' पढने के बाद ये दूसरा उपन्यास है आपका; पढ़ रही हूँ ... जो शुद्ध रूप से .. गाँव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखा गया है. गाँव की अच्छाई-बुराई को दिखाता, ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है, जिसमे, 'जाति समाज' और 'वर्ग चेतना' के बीच विरोधाभास की कथा है...'मैला आंचल' जब लिखा गया था, तब, कहा जाता है कि उस समय देश की आजादी के तुरंत बाद के ब्योरे थे...छ: दशक से ऊपर हुए, पर आज भी हालत जस के तस हैं...

कुछ पन्ने, जो जहन में अंकित हो गये हैं.....

दुसरे पृष्ट पर पात्रों के नाम से याद आया .. हमारे यहाँ भी गाँव में बलिस्टर...और वकील...जो जंगल से पत्ते तोड़ कर लाता था, दोनिया और पत्तल बनाता है ....और जज साहब, जो अभी भी आठ दस भैंस रखे हैं, सानी पानी करते और दूध बेचते हैं... लोग कहते हैं कि, जैसा नाम रखिये वैसे असर होता है...तो क्या ये नाम का असर ...?

'साक्षी' एक नाम है कितना प्यारा सा और सुंदर. उपन्यास में सबके नाम बिगाड़ कर लिखे गये हैं.. साक्षी को भी साक्षिया या कुछ ऐसा ही होना चाहिए था. लेकिन उसे प्रेमपत्र लिखते हुए उसका नाम 'साक्षी' ही रहने दिया गया है.... प्रेम जो न सिखा दे ...

बालमन की प्रीत जो कभी स्मृतियों से ओझल नही होती ..कलम चूमना, दिखाना की मुझे इस कलम से कितना लगाव है...और भी बहुत सारी विह्वल करती हुयी पंक्तियाँ...कितना सलोना एहसास...

बालमन, नासमझी से ओत-प्रोत...यूँ ही होता है. जब बड़े हमें कुछ और समझा दें...और हम वही सच मान लेते हैं...पर क्या सच दबा रह पाता है ... बाहर नहीं आने दिया गया तो उपन्यास में आ गया ...

सयुंक्त बड़े परिवारों में, बड़े होते बच्चों को ख्याल में नहीं रखा जाता, तो बच्चे जल्दी बड़े हो जाते हैं ...जैसा साक्षी के साथ हुआ...और फिर राह में चल पड़ने वाले मुसाफिर का मन रुकता कहाँ है ....

एक जगह मास्साब का यह सोचना कि--भगवान कहीं, आँख का अंधा और गाँठ का भरपूर समधी भी दिए होंगे... दहेज़ का लालच इंसान से जो न करवाए...

छौंड़ी का अर्थ लड़की// मन बाग़-बाग़ हो उठा ये शब्द पढ़कर ...

आज भी हमारे बिहार के उस आदिवासी इलाके में डायनो की किस्से सुनने को मिलते हैं...पृष्ट संख्या तीन का वर्णन आँखों के सामने तैर रहा है... ऐसा देखा भी है. गाँव के सिवान पर निकाल दी गयी थी हमारे यहाँ भी एक औरत, जिसे डायन करार दे दिया गया था...

और हाँ ! मुझे लगता है उसे ही डायन कहा जाता है, जिसकी संपत्ति हड्पनी होती थी.
''डायन के साथ यह अनकही सी शर्त भी होती होगी शायद कि उसके आगे पीछे कोई न हो''...कितनी बड़ी बिडम्बना है न हमारे समाज की ,कि घर में पुरुष ना हो तो उसे कुछ भी कोई कह दे ,,गाँव निकाला दे दे ...पति मरते समय नीला पड़ गया...सांप काट दिया होगा...पर ...क्यूंकि वह एक अबला थी..जिसके ऊपर किसी पुरुष की छत्र-छाया नहीं थी तो उस इल्जाम लग गया की खून पी कर पति को खा गयी...

(मुझे याद है...नंगे, मुंह में कालिख पोत कर, बाल मुड़ाकर आगे-आगे उस औरत को जिसे डायन कहा जाता था और पीछे से गाँव के लोग ..हुडदंग मचाते ..डायन चिल्लाते उसे पूरे गाँव में घुमाते हैं... ... जबकि, मुझे याद है कि, वहां एक ऐसी ही औरत के यहाँ मैं कई बार भोजन की हूँ ...बहुत प्यार करती थी ओ मुझे...लोग उसको कहते थे डायन, और कभी मुझे देख लिया उनके साथ, तो पापा से भी कह देते थे, एक बार हल्ला भी मचा था की मुखिया जी की बेटी उसके यहाँ खाती है... पर पापा ने मुझे कभी कुछ नही कहा ...कुछ सुधार होना शुरू हो गया था इन परम्पराओं का ...लेकिन, अभी भी बिहार में बहुतायत में ऐसा देखने को मिल जाता है ...)

उपन्यास में जगह-जगह जिन कवियों की पंक्तियों को इस्तेमाल किया गया है बहुत ही सुन्दर है...

पूरे उपन्यास में जीवन के बहुत से उतार चढ़ाव आये हैं, जो पाठकों को एक लय में बांधे रखते हैं व् बिन रुके पढने को मजबूर करते है, इस उपन्यास के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाये आपको...


 
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''उन्हें... जो काते हुए को बुनेंगे '

माया मृग जी की पुस्तक .. 'कात रे मन...कात' ...छोटे आकार में बड़ी पुस्तक ....  
एक नजर 'कात रे मन...कात' को...देखते हुए

 

..और जो समर्पित है
''उन्हें... जो काते हुए को बुनेंगे ''...वाह !

ऐसे समय में जब कातना, बुनना, जीवन जीने की यह सब कलाएं, पीछे छूट चुकी हो..कितना सुखद लगता है न कवि से ये शब्द सुनना, जैसे मद्धम सुर में कहीं सितार बज रहे हों...कवि कातने की बात करे तो बहुत कुछ सोचने जैसा हो जाता है ...गांधी याद आने लगते हैं और उनके साथ जुड़ा कितना कुछ ...आपके इस संकलन में कितना कुछ है.. जीवन खट्टे-मीठे अनुभव जो कभी, आँखे भर लाते है, कभी शहद सी खुशियों का एहसास दिलाते हैं. प्यार और उसकी चुभन और उसकी टूटन से ओत प्रोत...

"टूटकर निभाई मर्यादाएं भी... मित्रताएं भी टूटने का वक्त है, जाने क्या टूट जाए..."

सब अस्थिर है. सब टूटता है फिर फिर जुड़ता है, बस, टूटने और जुड़ने की प्रक्रिया ही स्थायी है

"रात की सियाही को छुआ तुमने तो, सबेरा हो गया.. तुम्हारी छुअन सियाही में घुली सी क्यूं है..."

वाह ! कहे बिन न रह सकी !

"तुम्हारी दी अंगूठी का हीरा... जब चमकता है तब बहुत चमकता है.. काटता है तो ... बहुत काटता है..." ...प्यार के यह दोनों रूप आपने दिखला दिए..

सोलहवें पृष्ठ पर है..''हार कर देखा कभी...? '' बरवस मेरे मुंह में अपनी ही एक पंक्ति अपने को दुहराने लगी ... "कई बार... जब-जब हारी और जीने, और हारने की चाह जगी ''

सत्रहवें पृष्ठ पर ' "वह हँसा ...खुली हँसी...(वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)

वह हँसी...खुली हंसी...(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने) "

भेद-भाव का यह कितना कटु सत्य है हमारे समय का. एक भावुक हृदय कवि ही स्त्री मन का 'मनन और गुनन' कर सकता है !

"बंद कमरे मैं गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री..."

पढ़कर..सोचने को मजबूर हो गयी...सब कुछ तो सच में ऐसा ही है..?

'कितना हँसते थे हम'' ये पंक्ति पढ़कर अतीत में जाए बगैर नही रह सकी ...कितना हँसते थे हम और आज बस याद करते हैं उस बीते अतीत को !

"ये हमने क्या किया ... लक्ष्मी को बुलाने के लिए हमने उल्लुओं को पिंजरें में डालना शुरू कर दिया... डालना तो उनको था जिन्होंने हमें उल्लू बनाया.. (तब आतीं लक्ष्मी तो...अपार)"

यह बात कुछ समझ में आई कुछ नहीं...

लेकिन माया जी क्या कहने हैं आपके ...छोटी छोटी रचनाएं समुन्द्र सी गहराई लिए हुए है, शब्दों का चयन यूँ किये हैं जो पाठकगण आसानी ग्रहण कर सके जबकि सरल और बिरल दोनो तरह के शब्द विन्यास हैं इस पुस्तक में .. बिखरना और समेटना जीवन का रंग है जहाँ हम कभी खुद को हारते हैं तो जीतते भी हैं ,ये रंग आता जाता रहता है,

"'ढूँढना जारी रहेगा... मेरा भी... तुम्हारा भी... तुम विकल्प ढूंढो... मुझे वह ढूँढने दो... जो सब विकल्प ख़त्म होने के बाद शुरू होता है..."

---वाह अद्भुत पंक्तियाँ ..कवि को ही पुल बनाने पड़ते हैं!

"कात रे मन ...कात...कातेगा तो बुनेगा...बुनेगा तो ओढेगा...सब ओढ़ कर जीते हैं, तू भी ओढ़ कर जी ..." निशब्द हूँ, आदरणीय माया जी, और आभारी भी कि मुझे इस पुस्तक  को पढने योग्य आपने मुझे
समझा बहुत-बहुत मंगल कामनाओं सहित ..
सम्पर्क-
बोधि प्रकाशन,77करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया 
बाईस गोदाम ,जयपुर -३०२००६
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